मंगलवार, 27 जून 2017

नाव का धर्म

1)लघुकथा-नाव का धर्म।

बेटी की शादी हैआज और सुनीता का मन ही नही लग रहा है किसी काम में।जहाँ जाती है वही औरत उसके पति का बच्चा हाथ में थामे समाज के बीच पति के साथ शान से दिखती है।और ये दोगला समाज भी विधायकजी की जी हुजूरी करते नही थक रहा है।सोच रही है कि यदि उस औरत ने उसकी जगह ले ही ली है ,तो अब वो क्या रह गयी है????किसलिये है यहाँ,जहाँ बहू की सारी मर्यादा और अपेक्षाएँ मात्र एक उसी है।क्यों वो सारी जिम्मेदारियां निभा रही है???
जिन बच्चों को नौ महीने अपनी कोख में रख हर दर्द सहा,क्या पैसों के आगे उन्हें भी उसका दर्द नही दिखता???वो भी तो पापा के साथ आंटी की तस्वीरें खींचने में लगे है......।यही सारी बाते उसके दिमाग मे कबड्डी खेल रही है।
अचानक बेटी की आवाज आती है"मम्मा चलो नीचे,
जरा देखो तो पापा आपके और आंटी के लिये कितने सुंदर लहंगे लाये है।आप ना पिंक वाला पहनना,ठीक है न मम्मा"।बेटी की खुशी का ठिकाना ही नही था।सुनीता एकटक अपनी बेटी को देखे जा रही है,बेटी क्या कह रही ,उस पर तो उसका ध्यान ही नही जा पाता। मन ही मन सोचती है"मेरी लाडो !!कितनी सुंदर लग रही है दुल्हन के जोड़े में और खुश भी।किसी की नजर न लगे बच्ची को मेरी।"सोचते हुये बेटी को काला टीका लगा अपनी सारी पीड़ाओं को दिल के किसी कोने मे दफन किये पुनः अपने कर्तव्यपथ पर अग्रसर हो जाती है।

#स्वरचित#प्रियंका शर्मा

2)लघुकथा:-बौनी प्रीत

रचना अपनी खिलौनों की दुकान पर बैठी ग्राहक का इंतजार कर रही थी,पर ये क्या ग्राहक है जो आने का नाम ही नही ले रहे है।इतने में ही रोज की तरह श्याम बाबू आ जाते है दुकान पर।रचना श्यामबाबू को देखकर शरमा जाती है ।हिचकिचाते हुए उन्हें बैठने को कहती है।यूँ तो श्याम बाबू रोज आते थे,पर आज अजीब सी खामोशी छा जाती है उनके आने पर।इतने मे ही रेडियो पर गाना बजता है"कुछ ना कहो,कुछ भी ना कहो....."।
दोनों एक दूसरे की आँखों में खो जाते है....।
अचानक श्याम बाबू चुप्पी को तोड़ते हुए कहते है-"रचना!क्या सोचा तुमने,मुझसे शादी करोगी या नही।"
रचना-"देखिये शहरी बाबू!!!मेरे तो भाग ही खुल गये,परन्तु आपसे तो कुछ न छुपा है।माँ-बाप है नही,छोटी बहन की पढ़ाई पूरी होने वाली है,पहले उसके हाथ पीले करूँगी मैं;तभी खुद शादी के बारे मे सोचूंगी।"
श्याम बाबू-"हाँ तो कर दे ना पहले उसके हाथ पीले।तेरी हाँ का जीवन भर इंतजार करूँगा।"सुनते ही रचना मन ही मन बहुत प्रफुल्लित हो जाती है मानो बरसो बाद उसे दुनिया की तमाम खुशियां मिल गई हो।
इतने में ही रचना की छोटी बहन कविता आ जाती है"दीदी चलो न,जब मैं शहर से आऊ कम से कम तब तो जल्दी घर आया करो।"
रचना-"अच्छा बाबा तू चल मैं अभी आती हूँ।
कविता जाते हुये श्याम बाबू को नमस्ते कह जाती है।
श्याम बाबू-"ओह्ह्ह!!!ये है तुम्हारी छोटी बहन।पढ़ी लिखी,गोरा रंग,तीखे नैन नक़्श ,सलिखेदार !!!बहुत सुंदर है।"
रचना-"जी ,बस उसके लायक कोई अच्छा लड़का मिल जाये,मेरी सारी जिम्मेदारियां खत्म।"
श्याम बाबू-"देखो रचना!मैं पढ़ा लिखा सुंदर हूँ,भगवान की कृपा से बड़ा अफसर भी हूँ।तुम......अगर ...चाहो...तो..मैं थाम लूँ तुम्हारी छोटी बहन का हाथ।बोलो क्या बोलती हो।"
रचना के पैरों तले मानो जमीन खिसक गयी हो।पल भर को लड़खड़ाते हुये पैरों को संभालते हुए अपनी आँखो मे आँसू लिए शहरी बाबू की ओर घृणित नजरों से देखती रहती है.....।

#स्वरचित#प्रियंका शर्मा

3)लघुकथा-खुशी के आंसू(सुख के सैलानी)

मणि ठाकुरजी की पूजा के लिये फूल तोड़ रही थी तभी कुछ बच्चे मणि से कहने लगे-"दादीजी हमारी गेंद आ गई है आपके बगीचे में,हम ले ले क्या?
"राम राम राम ये सुबह सुबह किन पापियों का मुंह दिखाया ठाकुरजी।पता नही किस किस का पाप है,चलो भागों यहाँ से"कहते हुए मणि अंदर चली गई।
मीरा-"माँजी आज मैं भी चलू आपके साथ मंदिर?"
मणि-"हाँ हाँ चल बेटा"।कहते हुए मणि के होंठो पे हल्की सी मुस्कान आ गई।
मंदिर पहुँच कर मणि अपनी पूजा में लग गई।कुछ देर बाद उसके कानों मे मीरा के खिलखिलाने की आवाज आई।मणि पूजा पाठ छोड़ देखने उठी।मीरा को कुछ बच्चे घेरे हुए थे और मीरा खिलखिला रही थी।मणि के चेहरे पर उदासी छा गई।पूरे रास्ते मणि जैसे कुछ सोच रही हो।घर के बाहरी गेट पर पहुँच कर मणि बोली-"बहू तुम अंदर जाओ मैं अभी आती हूँ।"कहकर मणि सामने वाली बिल्डिंग में जाती है और थोड़ी देर बाद वापस घर आकर मीरा के हाथों में दो नवजात शिशु सौपते हुए कहती है-"ले मीरा ,आज से ये तेरी संताने है।पता नही कौन कमबख्त छोड़ गया था अनाथालय इन्हें आज।मैंने सोचा हम अपना लेते है इन मासूमों को।और अब दौड़- धाप छोड़ो आराम करना है सवा महीना।तुझे वो सारे अनुभव दूँगी जो इनकी माँ को मिलना चाहिए,मैं तो अपनी सारी मुरादे पूरी करूंगी भई,ठाकुरजी की कृपा से पोते -पोती का सुख एक साथ मिल गया।
अकबकाई मीरा मानो गहरी नींद हठात् जागी और मणि के गले लग कर रोने लगी।

#स्वरचित#प्रियंका शर्मा

4)लघुकथा-ग्रहण

कीर्ति -"चंचल तेरे लिए बर्थ डे गिफ्ट लाई हूँ मैं,पर तू मुझे केक तो खिलाएगी ना और बलून भी देगी?
चंचल-"हा दूंगी,पर पहले तू गिफ्ट दे।तेरे लिए मैं बड़ी वाली टॉफी लाई हूँ,तू मेरी बेस्ट फ़्रेंड है ना इसलिए।
चंचल के पिता ने छट से कीर्ति को गोद मे उठाया और"चलो चलो अभी दिखाता हूँ"कहते हुए उसे टॉफी देने ले गए।
इतने मे ही कीर्ति को मम्मी की याद आ गई। और तपाक से चिल्लाई"उतारो मुझे अंकल"।वहा मौजूद सभी लोगों का ध्यान कीर्ति पर आ गया।और अंकल ने उसे नीचे उतार दिया।
"क्या हुआ बच्चा,बड़ो से ऐसे बात नही करते।चंचल की मम्मी ने कीर्ति से बड़े प्यार से कहा।
"सभी मुझे प्यार करते है आंटी ,पर जब अंकल प्यार करते है तो मुझे बिल्कुल अच्छा नही लगता।अंकल चंचल की तरह प्यार नही करते मुझसे।मम्मी ने समझाया हैकि जब तितली को कोई बेड टच करता है तो वो उड़ जाती है।डागी को बेड टच करते है तो वह भी बार्किंग करता है।इसीलिए जब तुम्हे कोई बेड टच करे तो तुम भी वही करना ,डरना नही और सबको बताना चुप ना रहना ,।"कीर्ति ने पूरे साहस के साथ आंटी की बातों का जवाब दिया।
चंचल की माँ की आंखो मे शर्म और "उबलते नीर" साफ दिखाई दे रहे थे उसने कीर्ति को गले से लगाया और चंचल के पिता की ओर देखते हुए कहा"शाबाश!मेरा बच्चा।"

#स्वरचित

जीवन-परिचय प्रारूप:

1 रचनाकार का नाम- प्रियंका शर्मा.   
2)पति का नाम- ऋषि शर्मा
3)वर्तमान/स्थायी पता-
   प्रियंका शर्मा व/०ऋषि शर्मा
    गवली हॉस्पिटल के पास,
     कुरावर मंडी,जिला-राजगढ़(ब्यावरा)
     तहसील-नरसिंहगढ़(म.प्र.)
4)
    ई मेल-
     Priyankaupadhyay193@gmail.com
5)शिक्षा- बी.एस. सी.(कंप्यूटर साइंस)
              एम. एस. सी.(कंप्यूटर साइंस)
              (पी. जी. रकॉलेज,मन्दसौर,
                 विक्रम यूनिवर्सिटी,उज्जैन)
    जन्म-तिथि-
            15/05/1987
6)व्यवसाय- Nill          

7)प्रकाशन विवरण-
            प्रयास पत्रिका(संपादक-सरन घई),हिंदीसागर पत्रिका(जे. एम.डी. पब्लिकेशन,दिल्ली)।
8)घोषणा-
            मैं ये घोषणा करती हूँ किप्रकाशन हेतु भेजी गयी समस्त रचनाएं मेरे द्वारा लिखित है तथा जीवन परिचय में दी गयी समस्त जानकारी पूर्णतया सत्य है,असत्य पाये जाने की दशा में हम स्वयं जिम्मेदार होंगे।
      
प्रियंका शर्मा
दिनांक- 22/06/2017

      
         



बौनी प्रीत

लघुकथा:-बौनी प्रीत (अप्रकाशित)

रचना अपनी खिलौनों की दुकान पर बैठी ग्राहक का इंतजार कर रही थी,पर ये क्या ग्राहक है जो आने का नाम ही नही ले रहे है।इतने में ही रोज की तरह श्याम बाबू आ जाते है दुकान पर।रचना श्यामबाबू को देखकर शरमा जाती है ।हिचकिचाते हुए उन्हें बैठने को कहती है।यूँ तो श्याम बाबू रोज आते थे,पर आज अजीब सी खामोशी छा जाती है उनके आने पर।इतने मे ही रेडियो पर गाना बजता है"कुछ ना कहो,कुछ भी ना कहो....."।
दोनों एक दूसरे की आँखों में खो जाते है....।
अचानक श्याम बाबू चुप्पी को तोड़ते हुए कहते है-"रचना!क्या सोचा तुमने,मुझसे शादी करोगी या नही।"
रचना-"देखिये शहरी बाबू!!!मेरे तो भाग ही खुल गये,परन्तु आपसे तो कुछ न छुपा है।माँ-बाप है नही,छोटी बहन की पढ़ाई पूरी होने वाली है,पहले उसके हाथ पीले करूँगी मैं;तभी खुद शादी के बारे मे सोचूंगी।"
श्याम बाबू-"हाँ तो कर दे ना पहले उसके हाथ पीले।तेरी हाँ का जीवन भर इंतजार करूँगा।"सुनते ही रचना मन ही मन बहुत प्रफुल्लित हो जाती है मानो बरसो बाद उसे दुनिया की तमाम खुशियां मिल गई हो।
इतने में ही रचना की छोटी बहन कविता आ जाती है"दीदी चलो न,जब मैं शहर से आऊ कम से कम तब तो जल्दी घर आया करो।"
रचना-"अच्छा बाबा तू चल मैं अभी आती हूँ।
कविता जाते हुये श्याम बाबू को नमस्ते कह जाती है।
श्याम बाबू-"ओह्ह्ह!!!ये है तुम्हारी छोटी बहन।पढ़ी लिखी,गोरा रंग,तीखे नैन नक़्श ,सलिखेदार !!!बहुत सुंदर है।"
रचना-"जी ,बस उसके लायक कोई अच्छा लड़का मिल जाये,मेरी सारी जिम्मेदारियां खत्म।"
श्याम बाबू-"देखो रचना!मैं पढ़ा लिखा सुंदर हूँ,भगवान की कृपा से बड़ा अफसर भी हूँ।तुम......अगर ...चाहो...तो..मैं थाम लूँ तुम्हारी छोटी बहन का हाथ।बोलो क्या बोलती हो।"
रचना के पैरों तले मानो जमीन खिसक गयी हो।पल भर को लड़खड़ाते हुये पैरों को संभालते हुए अपनी आँखो मे आँसू लिए शहरी बाबू की ओर घृणित नजरों से देखती रहती है.....।

#स्वरचित#प्रियंका शर्मा

लघुकथा-उबलते नीर(अप्रकाशित)

कीर्ति -"चंचल तेरे लिए बर्थ डे गिफ्ट लाई हूँ मैं,पर तू मुझे केक तो खिलाएगी ना और बलून भी देगी?
चंचल-"हा दूंगी,पर पहले तू गिफ्ट दे।तेरे लिए मैं बड़ी वाली टॉफी लाई हूँ,तू मेरी बेस्ट फ़्रेंड है ना इसलिए।
चंचल के पिता ने छट से कीर्ति को गोद मे उठाया और"चलो चलो अभी दिखाता हूँ"कहते हुए उसे टॉफी देने ले गए।
इतने मे ही कीर्ति को मम्मी की याद आ गई। और तपाक से चिल्लाई"उतारो मुझे अंकल"।वहा मौजूद सभी लोगों का ध्यान कीर्ति पर आ गया।और अंकल ने उसे नीचे उतार दिया।
"क्या हुआ बच्चा,बड़ो से ऐसे बात नही करते।चंचल की मम्मी ने कीर्ति से बड़े प्यार से कहा।
"सभी मुझे प्यार करते है आंटी ,पर जब अंकल प्यार करते है तो मुझे बिल्कुल अच्छा नही लगता।अंकल चंचल की तरह प्यार नही करते मुझसे।मम्मी ने समझाया हैकि जब तितली को कोई बेड टच करता है तो वो उड़ जाती है।डागी को बेड टच करते है तो वह भी बार्किंग करता है।इसीलिए जब तुम्हे कोई बेड टच करे तो तुम भी वही करना ,डरना नही और सबको बताना चुप ना रहना ,।"कीर्ति ने पूरे साहस के साथ आंटी की बातों का जवाब दिया।
चंचल की माँ की आंखो मे शर्म और "उबलते नीर" साफ दिखाई दे रहे थे उसने कीर्ति को गले से लगाया और चंचल के पिता की ओर देखते हुए कहा"शाबाश!मेरा बच्चा।बिल्कुल ठीक किया तुमने।ऐसे लोग समाज के लिए किसी ग्रहण से कम नही।"

#स्वरचित
प्रियंका शर्मा

सोमवार, 26 जून 2017

लघुकथा-खुशी के आँसू

लघुकथा-खुशी के आँसू।

मणि ठाकुरजी की पूजा के लिये फूल तोड़ रही थी तभी कुछ बच्चे मणि से कहने लगे-"दादीजी हमारी गेंद आ गई है आपके बगीचे में,हम ले ले क्या?
"राम राम राम ये सुबह सुबह किन पापियों का मुंह दिखाया ठाकुरजी।पता नही किस किस का पाप है,चलो भागों यहाँ से"कहते हुए मणि अंदर चली गई।
मीरा-"माँजी आज मैं भी चलू आपके साथ मंदिर?"
मणि-"हाँ हाँ चल बेटा"।कहते हुए मणि के होंठो पे हल्की सी मुस्कान आ गई।
मंदिर पहुँच कर मणि अपनी पूजा में लग गई।कुछ देर बाद उसके कानों मे मीरा के खिलखिलाने की आवाज आई।मणि पूजा पाठ छोड़ देखने उठी।मीरा को कुछ बच्चे घेरे हुए थे और मीरा खिलखिला रही थी।मणि के चेहरे पर उदासी छा गई।पूरे रास्ते मणि जैसे कुछ सोच रही हो।घर के बाहरी गेट पर पहुँच कर मणि बोली-"बहू तुम अंदर जाओ मैं अभी आती हूँ।"कहकर मणि सामने वाली बिल्डिंग में जाती है और थोड़ी देर बाद वापस घर आकर मीरा के हाथों में दो नवजात शिशु सौपते हुए कहती है-"ले मीरा ,आज से ये तेरी संताने है।पता नही कौन कमबख्त छोड़ गया था अनाथालय इन्हें आज।मैंने सोचा हम अपना लेते है इन मासूमों को।और अब दौड़- धाप छोड़ो आराम करना है सवा महीना।तुझे वो सारे अनुभव दूँगी जो इनकी माँ को मिलना चाहिए,मैं तो अपनी सारी मुरादे पूरी करूंगी भई,ठाकुरजी की कृपा से पोते -पोती का सुख एक साथ मिल गया ।"
मीरा की माँजी के गले लगकर रोने लगी।
मणि-"अरे अब क्यों रोती है पगली!रोए तेरे दुश्मन।"
मीरा-"ये तो खुशी के आँसू है माँजी।आपने तो मुझ अभागन को सारी खुशियां दे दी।मुकुन्दजी ने जरूर कोई पुण्य किये होंगे जो आप जैसी माँ मिली ।ठाकुरजी हर जन्म में मुझे आपकी ही बहू बनाए।"कहते हुए मीरा फिर से मणि के गले लग जाती है।

#स्वरचित#प्रियंका शर्मा
सुधार के पश्चात कहानी

लघुकथा-खुशी के आंसू(सुख के सैलानी)

मणि ठाकुरजी की पूजा के लिये फूल तोड़ रही थी तभी कुछ बच्चे मणि से कहने लगे-"दादीजी हमारी गेंद आ गई है आपके बगीचे में,हम ले ले क्या?
"राम राम राम ये सुबह सुबह किन पापियों का मुंह दिखाया ठाकुरजी।पता नही किस किस का पाप है,चलो भागों यहाँ से"कहते हुए मणि अंदर चली गई।
मीरा-"माँजी आज मैं भी चलू आपके साथ मंदिर?"
मणि-"हाँ हाँ चल बहू।"कहते हुए मणि के होंठो पे हल्की सी मुस्कान आ गई।
मंदिर पहुँच कर मणि अपनी पूजा में लग गई। उसके कानों मे मीरा के खिलखिलाने की आवाज आई।मणि पूजा पाठ छोड़ देखने उठी।मणि के चेहरे पर उदासी छा गई। मीरा को कुछ बच्चे घेरे हुए थे और मीरा खिलखिला रही थी। पूरे रास्ते मणि अनमनी -सी।घर के बाहरी गेट पर पहुँच कर बोली-"बहू तुम अंदर जाओ मैं अभी आती हूँ।" थोड़ी देर बाद वापस घर आकर मीरा के हाथों में दो नवजात शिशु सौप दी,-"ले मीरा ,आज से ये तेरी संताने है। अनाथालय से लेकर आयी हूँ, बच्चे पाप नहीं, पुन्य होते हैं!  अब दौड़- धाप छोड़ आराम करना है सवा महीना।तुझे वो सारे अनुभव दूँगी जो इनकी माँ को मिलना चाहिए,मैं तो अपनी सारी मुरादे पूरी करूंगी भई, ठाकुरजी की कृपा से पोते -पोती का सुख एक साथ मिल गया ।"
अकबकाई मीरा मानों गहरी नीद हठात जागी और  माँजी के गले लगकर रोने लगी।

शुक्रवार, 23 जून 2017

बाजी

कुंण्डलिया:-

बाजी ऐसी प्यार की,डूबे डूबत जाय
प्यार में बस दर्द मिले,दिल दे वो पछताय
दिल दे वो पछताय,और आँसू ही पावै
काम सब छोड़ी के,प्रेमी को ही रिझावे
कहूँ बात पते की,गलत दिशा के राही
प्रेम और जिंदगी,जीते न कोई बाजी।

प्रेम बाजी जो खेलिए,मानवता के संग
पाए जीवन की बेलि,तरह तरह के रंग
तरह तरह के रंग,ईशू कृपा से पावै
परिश्रम और साहस,जीवन अपना सँवारे
हर घड़ी कहत प्रिये,रख के सोच को पैनी
अपना नैतिक राह,बाजी जीते हि प्रेमी।

स्वरचित

बुधवार, 21 जून 2017

संगीत

संगीत मधुरमय महान,सदैव रहता संग
संगीत श्रृंगार बसा,जो बाजत हर रंग
जो बाजत हर रंग,

सोमवार, 19 जून 2017

समीक्षा

नकारात्मकता से ही सकारात्मकता उपजती हैबस थोड़ा धैर्य और सम्यक् प्रयास की आवश्यकता है।पलायन सम्भव है और सरल भी।परन्तु नही हमें हमारा ग्रहण काल यही पूरा करना है और सूर्योदय की प्रतीक्षा।

शनिवार, 17 जून 2017

पाठशाला

सादर नमन समिति।मेरा प्रयास-

आई बात शाला की पोटली को टटोलू।
बात कई रंगबिरंगी पर आज उनको मैं छोडू।
वैसे तो कई दोस्त थे मेरे ,
पर बस वो ही याद आती है
हँसती खेलती आंखो को
अश्रु वो दे जाती है।
थे के दोस्त मेरे
बस वो ही याद आती है।

"प्राची"एक अनमोल हीरा
जो मेरी एक सहेली थी
पर देखो वो मैले कुचले
कपड़ो मे शाला आती थी।
बाल उसके खराब होते
और जुतो के बंध खुले।
और पढ़ाई मे पूछो न तुम
हाल थे उसके बुरे।

कक्षा मे अक्सर ही वो
बाहर देख करती थी
मास्टरजी जो डांट लागाये
चौंककर देखा करती थी।
हालांकि किसी बात का वो
जवाब नही देती थी
पर चुप से अपना वो
सिर झुका लेती थी।

एक बेजान बुत सी वो
कोई पसंद ना करता था
आये दिन हर कोई उसको
नीचा दिखाया करता था।
मास्टरजी भी हरदम उस पर
ताना कसी करते थे
जैसे ऐसा करके
आनंदित
संतुष्टि वो पाते थे।

आई बारी प्रगति रिपोर्ट की
मास्टरजी ने सोचा
लिखूँ कुछ इसके बारे मे
या इसको मैं छोडू।
जरा देखू पिछली रिपोर्ट मे
क्या गूल इसने खिलाये।

जैसे खोली रिपोर्ट पिछली
मन उनका भर आया।
धीरे धीरे राज उसका
सामने उनके आया।
ये क्या??
ये तो थी बहुत गुणी।
आज उसको पहचान था
हालातों ने उसको
आज ऐसा बनाया था।

गहन विचार के बाद
उन्होंने अब ये ठानी थी
करूँगा उसकी पूरी मदद
चाहे कुछ हो जानी थी।

दूसरे दिन जब कक्षा मे
मास्टरजी जो आये।
अरे तारीफों के पुल उनके
फुले नही समाए
गलती को उसकी
किया नजरअंदाज
खुशियां ही सिर्फ वारी
छोड़ बस्ते के बोझ को
कुछ दिन मस्ती ही थी कराई
ऐसे करके धीरे धीरे
जिंदगी उसकी संवारी।

बचपन बहुत अनमोल है होता
इतना सा सब सोचो
नन्हे नन्हे बचपन को
बोझ से ना तुम तोलो
सबमे हो काबिलियत एक सी
नही कोई जरूरी।
करो प्रेम सबसे कक्षा मे
सबमे है नई खूबी
ढूंढो उस खूबी को तुम
उसे ही आगे बढ़ाओ
नन्हे बच्चे बोझिल बस्ता
बचपन को ना दबाओ।
#स्वरचित



गुरुवार, 15 जून 2017

मुक्तक मेहंदी

आज के विषय मुक्तक(मेंहदी)पर मेरा (प्रथम )प्रयास।कमियां सादर आमन्त्रित है।

1)मेंहदी हूँ रंग तो लाऊँगी
    बन के खुशबू  फिर बिखर जाऊँगी
    लालिमा प्रेम की छाएगी ऐसी
    लाख चाहूँ ना उतार पाऊँगी।
1)मेंहदी हूँ रंग तो लाऊँगी
    बन के खुशबू  फिर बिखर जाऊँगी
    लालिमा प्रेम की छाएगी ऐसी
    लाख चाहूँ ना उतार पाऊँगी

2)डोली उसकी उठे जिसके हाथो मे हूँ रची
     सुहागिन ये कहे मेरी सांसो मे हूँ बसी
     जिंदगी का कोई रंग नही है मेरे सिवा
     मेंहदी बचपन की लगन व जवानी की सखी।

3)गलतियां लाख कर लू फिर से कलम उठाना है
    तूफानों चीर आगे पुनः कदम बढ़ाना है
    आज देखू ,कितनी योग्यता है मुझमे अभी शेष
    पिस पिस फिर मुझे मेंहदी सा ही निखर जाना है।
    

#स्वरचित

बुधवार, 14 जून 2017

गजल मजा आ गया


बह् -212  212  212  212

प्यार तूने जताया मजा आ गया।
खण्डहर मे ख्वाब सजाया मज़ा आ गया।

कांटो पे हुआ ना मुमकिन चलना
चुनकर कांटो को जलाया मज़ा आ गया।

आँख मे थी हया हर मुलाकात पर
हाथ तूने बढ़ाया मज़ा आ गया।

तूने शरमा के मेरे  सवालात पे
सर जो अपना झुकाया मज़ा आ गया।

अश्क़ को आँख ही आँख में पी लिया
ग़म जहाँ से छुपाया मज़ा आ गया।

अजनबी होता सजा भी देता 'प्रिया'
तूने जो  यूँ सताया मज़ा आ गया।

#स्वरचित चयन हेतु नही

दीप प्रतीक

दीप प्रतीक है प्रकाश का,
ज्ञान का ,
बुराई पर विजय का,
ये दीप प्रतीक है ज्योर्तिपुंज का,
जो मेरे अंदर जलता है
जो जग को ज्योतिर्मय करता है।

माना अंधेरा होता है बड़ा
और लौ दीये की
छोटी सी;
जो स्वयं तले अंधेरा रख
दूजे को रोशन करती है
ये दीप प्रतीक है उस आस्था का
जो मेरे अंदर पलती है
जग को ज्योतिर्मय करती है।

दीप प्रतीक है सूर्य किरण का
रंग बिरंगे खिलते फूलो का
बादलों को चीरती जल बूंदों का
वो सुंदर इंद्रधनुष का
ये कितनी विभिन्न घटनाये
जो इस धरा पर घटती है
पर सब मे प्रकृति का
एक नियम बस होता है
ये दीप प्रतीक विज्ञान का
जो मेरे अंदर बहता है
जीवन को पग पग
प्रेरित करता है।

ये ब्रह्माण्ड और अपराध भी
माना मैंने,
है बहुत विशाल
और मैं दीन दुःखी
हूँ लघु बड़ी,
पर दीप कहता मैं हीन नही।
नश्वर तो हूँ,
पर क्षीण नही।
ये दीप प्रतीक उस शक्ति का
जो मेरे मानस मे रहती है
जो जग को साहस से भरती है
इस शक्ति मे
विश्वास मैं करती हूँ
और सब सह कर भी
आगे बढ़ती हूँ।
एक दिन जीतूंगी मैं
ज्योति से अपनी
उस अंधेरे को;
जो मुझ पर अनुबंध लगाता है।
नही मानती उस अनुबंध को
जो मुझ पर प्रतिबंध लगाता है।
दीप प्रतीक उस अहम का,
जो मेरे अंदर भी पलता है
जो ऐसे समाज को तोड़ता है।
छोड़ सारी कुरीतियों को
नव रीतियों से सजाता है।

#स्वरचित(प्रियंका शर्मा)

रविवार, 11 जून 2017

पापा

ऩ होगा कभी दृष्टि से लक्ष्य ओझल ;
बनेगा हमारा हृदय-बल ही सम्बल !
अतुल शक्ति अपने पगों मे छिपी है ;
झुकेगा किसी दिन इन्ही पर हिमाचल !

अभी कल्पना हो सकी है न पूरी
अभी साधना रह गई है अधूरी
अभी तो खुला द्वार केवल
अभी लक्ष्य मे शेष है और दूरी।

शनिवार, 10 जून 2017

दोहा

इदोहा का गणित कुछ इस तरह से है
4 + 4 + 3 +2 या 4+ 4 + 2 + 3
प्रथम चरण

द्वितीय चरण - 4 + 4+ 3 ( 2 + 1 )

सादर नमन
कमियां सादर आमन्त्रित है।
1)

दोहा लिख लिख मैं हारी,कुछ समझ नहि आय।
सामने ज्ञानी बड़े,मन मेरा घबराय।।

जीवन सफर मे देखिये,खड़े जो हम मैदान।
मंजिल दीखत है नही,राह बनी बीरान।।

प्रेम जताके वो देख लो,भीतर मन समाय।
मीठा मीठा बोलि कै,पीठ छुरीन घुसाय।।

जात पात का भेद ये,बात समझ नहि आय।
हरिजन शब्द मे देखिए,स्वयं ही हरि समाय।।

बेटा सबको ही चाहिए,कुल दीपक कहलाय।
मान सम्मान गृहशोभा,बिटिया ही बढ़ाय।।

इस योग्य तो नही फिर भी अब अंत मे दो दोहे शीर्षक समिति पर लिखने की चेष्टा  कर रही हूँ।गलती हो तो क्षमा करे:-

शीर्षक परिवार वो है,जो ज्ञान मेरा बढ़ाय।
शनै शनै जीने की जो,जीवन आस जगाय।।

है कई समीतियाँ पर,एक यही मन को भाय।
जिसका आगमन हो यहाँ,एक परिवार हो जाय।।

#स्वरचित

आज तुम्हारी शादी की सालगिरह पर पलकजी और तुम्हारे लिए दोहे मेरी और से सप्रेम भेट:-

रहे न जीवन में कहीं,कोई भी अवसाद,
सालगिरह की आपको, बहुत मुबारकबाद,

चाँद चकोरी सा खिले, जीवन भर यह साथ,
भरी  प्रेम  के  रंग  से,  रहे  ये'  बिंदी माथ,

जैसे पंछी की रही, दोय बूँद की प्यास,
बैठे हमउ लगाय हैं,दोय मीठन कि आस,

पाएं लक्ष्य उम्मीद का, वांछित सब संतान,
बजती राधा-कृष्ण सी, रहे ह्रदय में तान।

सादर नमन
नियमानुसार प्रतियोगिता से इतर(कमियां सादर आमंत्रित)-
विषय-सावन(दोहा)

1)अद्भूत ठण्डी फुहारे,सावन लेकर आय।
   तीज त्यौहार मनावे,मनवा हिलौरे खाय।।

2)रिमझिम बारिश भये,मनभावन संगीत।
    आतुर मनवा पी मिलन,पीर बड़ी मनमीत।।

3)सावन महिना अति प्रिये,शिवजी पूजन होत।
    झिलमिल निश्छल जले,अनंत भोला जोत।।

4)बगीया सावन झूले,हरनार एक हि आस।
    सावन पी संग फुले,जनम जनम हरि दास।।

5)सावन पूनम मनावे,रक्षाबंधन तिवार।
    भाई बहना जतावे,एकदूजे प्रति हि प्यार।।

#स्वरचित
प्रियंका शर्मा।

गुरुवार, 8 जून 2017

जरा सा तुम बदल जाते,,जरा सा हम बदल जाते..
मुमकिन था शायद ये रिश्ते किसी साँचे में ढल जाते..!!

# अभी- अभी#
०१-१० +  ९-७-१७
टूट गए सम्बन्ध सब , बिखर गए अनुबन्ध।
मेरे ऊपर लग गए , कई नए प्रतिबन्ध।।

सोमवार, 5 जून 2017

प्रेम परिभाषा

आज मैं आपको शब्दों के जाल में उलझाएँ बिना कुछ बता रही हूँ।
ऐसा कुछ जो प्रेम की नई परिभाषा गढने में समर्थ है। यह बताने में समर्थ है कि एक दूसरे से घंटों बातें करना, उपहार लाकर देना, अनोखे सरप्राइज देना, साथ जीने मरने की कसमें खाना आदि ही केवल प्रेम नहीं है।
पति-पत्नी में प्रेम तब भी होता है जब सालों से एक दूसरे को आई लव यू न कहा हो, बर्फीली वादियों में एक दूसरे के बाहुपाश में तस्वीरें न खींचवाई हो, आवश्यकता की वस्तुओं के अलावा कभी पति ने एक फूल भी लाकर न दिया हो, घर की जरुरतों एवं बच्चों की परवरिश में सदैव उदासीनता दिखाई हो, कभी पति द्वारा कुछ वक्त अकेले में बिताने या करीब आने की फरमाईश करने पर पत्नी ने सदैव इंकार किया हो, जरुरत भर की बातों के अलावा मौन भाषा में ही अपने विचारों को अभिव्यक्त किया हो।
आश्चर्य हो रहा है न। ऐसा भला कैसे हो सकता है। रिश्तों में उपरोक्त बातों को महत्तव देने की हिमायती रही बबिता की कलम आज क्या कहना चाह रही है।
चलिए बताती हूँ-
मेरे पङोस में एक परिवार रहता है। मुखिया का नाम मानव और उनकी पत्नी का नाम भारती है। मानव अंकल को सब मनु बुलाते हैं। भारत के लाखों दम्पत्तियों की तरह मनु अंकल एवं भारती आंटी के रिश्ते में उपरोक्त वर्णित सम्भावनाएँ न के बराबर ही थी। नीरसता से जिंदगी आगे बढ ही रही थी कि अचानक एक दिन घर की मालकिन को ब्रेन हेमरेज हो गया।
छोटी जगह में रहने के लाख फायदे हो सकते हैं लेकिन एक बहुत बङा नुकसान है कि इंसान समय पर उचित ईलाज के अभाव में भगवान को प्यारा हो जाता है। लेकिन साहब यह भी वह ही होता है जो अपने दिन कम लेकर आता है। यहाँ के अस्पताल में भारती आंटी को मृत प्रायः घोषित कर दिया। खैर परिवार वालों ने तुरंत गुवाहटी की शरण ली। पूरे रास्ते एम्बुलेंस में मनु अंकल आंटी के पास सलाइन की बोटल हाथ में लेकर बैठे रहे। घर वाले बहुत अचंभित थे।
गुवाहटी में भी निराशा ही मिली। एक डॉक्टर ने तो मौत न आने तक घर ले जाकर मौत का इंतजार करने तक की सलाह दे दी। उम्मीदी नाउम्मीदी में बदल रही थी। दस दिन निकल चुके थे। किंतु मनु अंकल निराश नहीं थे। सकारात्मक ऊर्जा मानो उनके भीतर में ही अपना संयत्र खोल चुकी थी। वे भारती आंटी को लेकर सिलिगुङी पहुँच गए।
असली कहानी यहीं से शुरु हुई। गाँव वाले तो बिन माँगी राय के लिए हमेशा हाजिर रहते ही हैं। उनके इस कदम की सबने जमकर निंदा की। कारण एक ही सामान्य आर्थिक स्थिति में जीवन यापन करने वाला आखिर क्यों अमावस्या की रात में चाँद के दर्शन के ख्वाब देख रहा है। मनु अंकल ने किसी की सुनी ही नहीं। वहाँ भी डॉक्टर ने कहा कि उम्मीद बहुत कम है फिर भी प्रयास किया जा सकता है। जिंदा लाश की तरह भारती आंटी दस-बीस या तीस दिन नहीं पूरे दो महीने बिस्तर पर रही। डॉक्टर अपना काम कर रहे थे। किंतु जीवन का एक भी संकेत नहीं मिल रहा था।
घर वाले भी अब तो मनु अंकल से चिङने लगे थे। यहाँ तक की उनके अपने बेटे और बेटी भी। मध्यमवर्गीय परिवार के घर का सदस्य इतनी लम्बी अवधि तक किसी प्राइवेट अस्पताल में रह जाए तो उस परिवार के स्तर को निम्न स्तर पर आने में बिल्कुल वक्त नहीं लगता।
दिन आगे बढ रहे थे कि एक दिन भारती आंटी के बाएँ हाथ की उंगली हिली। बस यह अमावस्या को चांद दिखने जैसा ही था। मनु अंकल ने सिलिगुङी के उस अस्पताल के एक-एक कर्मचारी और मरीज को मिठाई खिलाई।
फिर निराशा के बादल छा गए थे। अब तो डॉक्टर भी हताश होने लगे थे। तीन महीने होने को आए थे। तभी भारती आंटी की दूसरे हाथ की भी उंगली हिली। यूँ ही वक्त की राह पर चलते एक दिन भारती आंटी को होश आ गया। अब तक छः महीने का वक्त निकल चुका था। किंतु उन्होंने किसी को पहचाना नहीं। वक्त की रफ्तार के साथ उम्मीदों को भी गति मिल रही थी। धीरे-धीरे भारती आंटी सबको पहचानने लगी। किंतु उन्हें रहना बिस्तर पर ही था। एक वर्ष सिलिगुङी रहकर मनु अंकल भारती आंटी को लेकर नलबाङी लौट आए।
तब तक आंटी दो चार टूटे फूटे शब्द बोलने लगी थी। मनु अंकल अपने साथ एक नर्स भी लाए थे जो आंटी का पूरा ख्याल रखती थी। किंतु आंटी के कपङे बदलना, उन्हें तैयार करना आदि काम अंकल अपन हाथ से करने लगे थे। वो उनके पास ही बैठते और उन्हें निहारते रहते। नर्स व्यायाम नहीं करवा पाती थी। उन्होंने यह काम भी अपने हाथ में ले लिया। धीरे-धीरे आंटी की सेहत में इतना सुधार हो गया कि वे व्हील चेयर पर बैठकर पूरे घर में घूमने लगी और सामान्य इंसान की तरह बातें करने लगी।
वक्त को शायद यह खुशी मंजूर नहीं थी। अकंल उन्हें उनके पैरों पर चलाने की जद्दोजहद में लगे थे और उधर आंटी एक दिन फिर जिंदा लाश बन गई। फिर सिलिगुङी लेकर जाना उन्होंने जरुरी नहीं समझा क्योंकि एक वर्ष वहाँ ईलाज करवाकर वे स्वयं डॉक्टर बन गए थे। नर्स की मदद से वे खुद ही ईलाज करने लगे। अब आंटी आँख तो खोलती है। मुस्कराती भी है किंतु उनकी स्मृति केवल घर के सदस्यों तक ही सीमित रह गई है। अंकल उनकी इस तरह सेवा करते हैं मानो वे देवी प्रतिमा हो।
कल मैं उनके घर गई थी। अंकल, आंटी के बालों में काली मेहंदी लगा रहे थे। उनकी माँ उनके ऊपर बरस रही थी-
“इतना श्रृंगार क्या करना है। अब यह कभी तेरे कोई काम नहीं आयेगी। समझता क्यों नहीं है। गाँव में अपनी हँसी करवा रहा है एवं घर का भी दिवाला निकाल रहा है।”
किंतु उन्हें तो मानो मतलब ही नहीं था। वो टुथ ब्रश में महंदी लेकर सामने दिखते बालों में इतने मनोयोग से मेहंदी लगा रहे थे कि गलती से भी त्वचा इसके सम्पर्क में न आ जाए।
हमें देखकर बोले-
“यह खुद अपना मेकअप नहीं कर सकती है तो क्या हुआ। इसे भी तो सुंदर दिखने का अधिकार है। इसकी साँसें चल रही है, मेरे लिए इतना ही बहुत है। मैं अगर इसके स्थान पर होता और कोई मेरे लिए मौत माँगता तो मुझे कैसा लगता...............यह कह नहीं पा रही। सोचती तो यह भी है ही न...............”
मैं अपने आँसू नहीं रोक पाई। मैं वहाँ से तुरंत लौट आई। जानती हूँ आंटी कभी अपने पैरों पर नहीं चल पायेगी। किंतु भगवान से इतनी दुआ तो आप सब मेरे साथ करना कि बिस्तर पर रहते हुए ही वे मनु अंकल से हँसकर बात करने लायक हो जाए...............
मनु अंकल अब आंटी को दिल्ली ले जाकर दिखाना चाहते हैं। इस हालत में आंटी को दिल्ली लेकर जाना समझदारी भरा निर्णय है या नहीं पता नहीं.................
किंतु अंकल के प्रेम के आगे वे सभी प्रेम के तरीके असफल है जिन्हें प्रेम कहा जाता है। अंकल एक तरह से निर्जीव देह से प्रेम की हद तक प्रेम करते हैं.............किंतु उन्होंने कभी भारती आंटी को नहीं बोला-
मैं तुम्हारे बिना जी नहीं पाऊंगा..........तुम स्वर्ग से उतरी अप्सरा लगती हो..........किंतु आज वे अपनी बीमार पत्नी को अप्सरा की तरह ही सजाकर रखते।
हर एक बात पर शिकायत करने से पहले हमें हमारे रिश्तों के बारे में सोचने की आवश्यकता है।
हर किसी को प्रेम के इजहार करना नहीं आता। जो इजहार नहीं करते वे प्रेम नहीं करते यह धारणा बकवास है क्योंकि मैंने कई ऐसे प्रेम का इजहार करने वाले देखे हैं जो चार दिन पत्नी या पति की तबियत खराब होने पर ही पाँचवें दिन से नजर अंदाज करना शुरु कर देते हैं।
यदि अमीर है तो नर्स के भरोसे छोङ देते हैं एवं गरीब है तो भगवान के भरोसे..................