सोमवार, 31 जुलाई 2017

मधुदीपजी की लघुकथाएँ

                              ' हिस्से का दूध ' 
                                             लेखक- मधुदीप 

उनींदी आँखों को मलती हुई वह अपने पति के करीब आ कर बैठ गयी। वह दीवार का सहारा लिए बीड़ी का कश ले रहा था।
" सो गया मुन्ना ... ?"
" जी ! लो दूध पी लो। " सिल्वर का पुराना गिलास उसने बढ़ाया।
" नहीं, मुन्ना के लिए रख दो। उठेगा तो   ... ।" वह गिलास को माप रहा था।
" मैं उसे अपना दूध पिला दूँगी। " वह आश्वस्त थी।
" पगली, बीड़ी के ऊपर चाय दूध नहीं पीते। तू पी ले। " उसने बहाना बना कर दूध को उसके और करीब कर दिया।
तभी ---
बाहर से हवा के साथ एक स्वर उसके कानों से टकराया। उसकी आँखें कुर्ते की खाली जेब में घुस गयीं।
" सुनो, ज़रा चाय रख देना। "
पत्नी से कहते हुए उसका गला बैठ गया। 
                                             ***************

लघुकथा - 'ऐसे'
लेखक - मधुदीप

रात के गहराते अन्धकार में दो मित्र पार्क की सुनसान बैंच पर गुमसुम बैठे थे। इससे पूर्व वे काफी देर तक बहस में उलझे रहे थे। इस बात पर तो दोनों सहमत थे कि इस दुनिया में जिया नहीं जा सकता; इसलिए मरना बेहतर होगा। मगर मरे कैसे ? काफी विचारने के बाद भी दोनों को आत्महत्या का कोई  ढंग उपयुक्त नहीं लगा था।
" सुनो   ... ।" एक ने खामोशी तोड़ी।
" हूँ  ... । "
" मेरी मानोगे ?"
" क्या ? "
" क्यों न हम जिंदगी से लड़ कर मरें।"
कुछ देर बाद दोनों मज़बूती से एक दूसरे का हाथ थामे ; एक ओर  बढे जा रहे थे।           

                                          ***************

तुम इतना चुप क्यों हो दोस्त !
                       (मधुदीप की लघुकथा)

     हिन्दुस्तान की तरह ही एक देश | दिल्ली की तरह ही उसकी एक राजधानी | बाबा खड्गसिंह मार्ग पर स्थित कॉफ़ी-हॉउस की तरह ही बैठकों का एक अड्डा | एक मेज पर छह बुद्धिजीवी सिर-से-सिर मिलाए गर्मागर्म बहस में उलझे हुए हैं | मैं बराबर की मेज पर अपना कॉफ़ी का प्याला लिए बैठा हूँ |
     “देश की अर्थव्यवस्था गर्त्त में जा रही है...”
     “नेताओं ने सारे देश को लूटकर खा लिया है...”
     “दुश्मन हमारे सैनिकों के सिर काट रहा है...”
     “सबसे बड़ा प्रश्न भ्रष्टाचार का है...’’
     ‘’तुम इतना चुप क्यों हो दोस्त...!’’
     “मैं कुछ कहना नहीं, करना चाहता हूँ मेरे दोस्त...!’’
     मेरे प्याले की ठंढी हो रही कॉफ़ी में उबाल आने लगा है |
                                               ०००
                                               ०००

समय का पहिया घूम रहा है
           (मधुदीप की लघुकथा)
     शहर का प्रसिद्ध टैगोर थियेटर खचाखच भरा हुआ है | जिन दर्शकों को सीट नहीं मिली है वे दीवारों से चिपके खड़े हैं | रंगमंच के पितामह कहे जानेवाले नीलाम्बर दत्त आज अपनी अन्तिम  प्रस्तुति देने जा रहे हैं |
     हॉल की रोशनी धीरे-धीरे बुझ रही है, रंगमंच का पर्दा उठ रहा है |
     दृश्य : एक
     तेज रोशनी के बीच मंच पर मुगल दरबार सजा है | शहंशाहे आलम जहाँगीर अपने पूरे रौब से ऊँचे तख्तेशाही पर विराजमान हैं | नीचे दोनों तरफ दरबारी बैठे हैं | एक फिरंगी अपने दोनों हाथ पीछे बाँधे, सिर झुकाये खड़ा है | उसने शहंशाहे हिन्द से ईस्ट इंडिया कम्पनी को सूरत में तिजारत करने और फैक्ट्री लगाने की इजाजत देने की गुजारिश की है | दरबारियों में सलाह-मशविरा चल रहा है |
     “इजाजत है...” बादशाह सलामत की भारी आवाज के साथ दरबार बर्खास्त हो जाता है |
     मंच की रोशनी बुझ रही है...हॉल की रोशनी जल रही है |
     दृश्य : दो 
     मंच पर फैलती रोशनी में जेल की कोठरी का दृश्य उभर रहा है | भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जमीन पर आलथी-पालथी मारे बैठे गम्भीर चिन्तन में लीन हैं | जेल का अधिकारी अन्दर प्रवेश करता है |
     “भगत सिंह ! तुम जानते हो कि आज तुम तीनों को फाँसी दी जानी है | सरकार तुम्हारी आखिरी इच्छा जानना चाहती है |”
     “हम भारत को आजाद देखना चाहते हैं | इन्कलाब जिन्दाबाद...” तीनों का समवेत स्वर कोठरी की दीवारों से टकराकर गूँज उठा है |
     रोशनी बुझ रही है, पर्दा गिर रहा है |
                                                        पृष्ठ –2 पर जारी

     दृश्य : तीन 
     धीरे-धीरे उभरती रोशनी से मंच का अँधेरा कम होता जा रहा है | दर्शकों के सामने लालकिले की प्राचीर का दृश्य है | यूनियन जैक नीचे उतर रहा है, तिरंगा ऊपर चढ़ रहा है |
     लालकिले की प्राचीर पर पड़ रही रोशनी बुझ रही है | मंच के दूसरे भाग में रोशनी का दायरा फैल रहा है | सुबह का दृश्य है | प्रभात की किरणों के साथ गली-कूँचों में लोग एक-दूसरे से गले मिल रहे हैं...मिठाइयाँ बाँट रहे हैं...आजादी का जश्न मना रहे हैं |
     मंच का पर्दा धीरे-धीरे गिर रहा है |
     दृश्य : चार
     तेज रोशनी के बीच मंच पर देश की संसद का दृश्य उपस्थित है | सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच एक अहम मुद्दे पर तीखी बहस हो रही है |
     “देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिये हमें खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी-निवेश को इजाजत देनी ही होगी...” सत्तापक्ष का तर्क है |
     “यह हमारी स्वदेशी अर्थव्यवस्था को नष्ट करने की साजिश है...” विपक्ष जोरदार खण्डन कर रहा है |
     सभी सदस्य अपनी-अपनी मेज पर लगे बटन को दबाकर अपना मत दे चुके हैं | लोकसभा अध्यक्ष द्वारा परिणाम घोषित किये जाने की प्रतीक्षा है |
     “सरकार का प्रस्ताव बहुमत से स्वीकार हो गया है...” लोकसभा अध्यक्ष की महीन आवाज के साथ ही मंच अँधेरे में डूब जाता है | 
     रोशनी में नहाया हॉल स्तब्ध है | दर्शक ताली बजाना भूल गये हैं |  ०००

मधुदीप की लघुकथा 
                
                         सन्नाटों का प्रकाशपर्व

     दशहरे बाद के बीस दिन जैसे नीले घोड़े पर सवार होकर उड़े जा रहे थे . बंगलों में हो रही साफ-सफाई और रँगाई-पुताई ने सूचित कर दिया था कि प्रकाशपर्व नजदीक आ गया है . जे० के० व्हाइट सीमेंट वाली वाल-पुट्टी तथा एशियन पेंट से दीवारें बोल उठी थीं मगर सम्भ्रान्त कॉलोनी की इन दीवारों के बीच पाँच आशियाने ऐसे भी थे जिनकी दीवारें वर्षों से बोलना भूल गई हैं . इनके वारिश अपने बुजर्गों को देश में अकेला छोड़ विदेशों में जा बसे हैं .
     ये बुजुर्ग सुबह की सैर से लौटकर ऊँचे परकोटों से घिरे अपने-अपने आलीशान बंगलों के लॉन में पड़ी आराम कुर्सियों में पसरे एकटक सामने देखते रहते हैं . माली की खुरपी चलती रहती है और गेट पर दरबान मुस्तैद खड़ा रहता है मगर उनकी तरफ इनका ध्यान नहीं होता . इनका दिन तो तब आगे बढ़ता है जब गेट से कामवालियाँ प्रवेश करती हैं . साफ़-सफाई होती है, चाय-नाश्ता मिलता है और दोपहर का भोजन पेक होता है . कुछ देर को सन्नाटा टूटता है मगर बेताल की तरह आकर फिर पसर जाता है .
     इन बुजर्गों के लिए दीवाली-दशहरे का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है . विदेशों से अपनों की फोन-काल्स, हाय-हैलो, हैप्पी दीवाली, हैप्पी दशहरा... और बस...! ये सभी शरीर से बिल्कुल स्वस्थ लगते हैं मगर एक टूटनभरी थकान इनके पोर-पोर में भरती जा रही है . ये पाँचों प्रतिदिन आपस में मिलते हैं, लम्बी-लम्बी गप्पें मारते हैं, अपनी-अपनी जवानी की यादें दोहरातें हैं मगर इस थकान को अपने से अलग नहीं कर पाते .
     आज दीवाली की प्रभातवेला में जब ये पाँचों सुबह की सैर के बाद एक परकोटे की लॉन में पड़ी कुर्सियों में जाकर धँस गए तो उस परकोटे की ऊँची दीवारें बहुत देर तक फुसफुसाहटें सुनती रहीं . अपने-अपने मालिकों के परकोटों को बन्द पाकर वे पाँचों कामवालियाँ जब इस परकोटे में पहुँचीं तो वहाँ निश्छल खिलखिलाहट फैली हुई थी . वे कुछ न समझ सकीं और हैरान-परेशान सी उनके दिन को आगे बढ़ाने के लिए अन्दर चली गईं .
     सुबह का नाश्ता एकसाथ करते हुए वे सभी अपनी थकान को समेटकर एक निर्णय पर पहुँच चुके थे .
     लक्ष्मी-पूजन के बाद जब सम्भ्रान्त लोग अपने-अपने परिवारों के साथ कॉलोनी में फैले प्रकाशपर्व को देखने छतों पर पहुँचे तो उनकी आँखों के सामने अद्भुत नजारा था...
     साथ लगी कामगारों की कॉलोनी में मोमबत्तियों, दीयों और बिजली की लड़ियों की रोशनी का झलमला फैल रहा था... सम्भ्रान्त कॉलोनी के वे पाँचों बुजुर्ग बच्चों के साथ गोल-गोल घूमते हुए ताली बजा रहे थे, छोटे-छोटे पटाखे छुड़ा रहे थे .  ०००
                                                        --मधुदीप
                                                   138/16 त्रिनगर , दिल्ली-110 035
                                                                                                                  मो० - 09312400709
मधुदीप की लघुकथा 
                
                         सन्नाटों का प्रकाशपर्व

     दशहरे बाद के बीस दिन जैसे नीले घोड़े पर सवार होकर उड़े जा रहे थे . बंगलों में हो रही साफ-सफाई और रँगाई-पुताई ने सूचित कर दिया था कि प्रकाशपर्व नजदीक आ गया है . जे० के० व्हाइट सीमेंट वाली वाल-पुट्टी तथा एशियन पेंट से दीवारें बोल उठी थीं मगर सम्भ्रान्त कॉलोनी की इन दीवारों के बीच पाँच आशियाने ऐसे भी थे जिनकी दीवारें वर्षों से बोलना भूल गई हैं . इनके वारिश अपने बुजर्गों को देश में अकेला छोड़ विदेशों में जा बसे हैं .
     ये बुजुर्ग सुबह की सैर से लौटकर ऊँचे परकोटों से घिरे अपने-अपने आलीशान बंगलों के लॉन में पड़ी आराम कुर्सियों में पसरे एकटक सामने देखते रहते हैं . माली की खुरपी चलती रहती है और गेट पर दरबान मुस्तैद खड़ा रहता है मगर उनकी तरफ इनका ध्यान नहीं होता . इनका दिन तो तब आगे बढ़ता है जब गेट से कामवालियाँ प्रवेश करती हैं . साफ़-सफाई होती है, चाय-नाश्ता मिलता है और दोपहर का भोजन पेक होता है . कुछ देर को सन्नाटा टूटता है मगर बेताल की तरह आकर फिर पसर जाता है .
     इन बुजर्गों के लिए दीवाली-दशहरे का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है . विदेशों से अपनों की फोन-काल्स, हाय-हैलो, हैप्पी दीवाली, हैप्पी दशहरा... और बस...! ये सभी शरीर से बिल्कुल स्वस्थ लगते हैं मगर एक टूटनभरी थकान इनके पोर-पोर में भरती जा रही है . ये पाँचों प्रतिदिन आपस में मिलते हैं, लम्बी-लम्बी गप्पें मारते हैं, अपनी-अपनी जवानी की यादें दोहरातें हैं मगर इस थकान को अपने से अलग नहीं कर पाते .
     आज दीवाली की प्रभातवेला में जब ये पाँचों सुबह की सैर के बाद एक परकोटे की लॉन में पड़ी कुर्सियों में जाकर धँस गए तो उस परकोटे की ऊँची दीवारें बहुत देर तक फुसफुसाहटें सुनती रहीं . अपने-अपने मालिकों के परकोटों को बन्द पाकर वे पाँचों कामवालियाँ जब इस परकोटे में पहुँचीं तो वहाँ निश्छल खिलखिलाहट फैली हुई थी . वे कुछ न समझ सकीं और हैरान-परेशान सी उनके दिन को आगे बढ़ाने के लिए अन्दर चली गईं .
     सुबह का नाश्ता एकसाथ करते हुए वे सभी अपनी थकान को समेटकर एक निर्णय पर पहुँच चुके थे .
     लक्ष्मी-पूजन के बाद जब सम्भ्रान्त लोग अपने-अपने परिवारों के साथ कॉलोनी में फैले प्रकाशपर्व को देखने छतों पर पहुँचे तो उनकी आँखों के सामने अद्भुत नजारा था...
     साथ लगी कामगारों की कॉलोनी में मोमबत्तियों, दीयों और बिजली की लड़ियों की रोशनी का झलमला फैल रहा था... सम्भ्रान्त कॉलोनी के वे पाँचों बुजुर्ग बच्चों के साथ गोल-गोल घूमते हुए ताली बजा रहे थे, छोटे-छोटे पटाखे छुड़ा रहे थे .  ०००
                                                        --मधुदीप

वानप्रस्थ    (मधुदीप की लघुकथा)

यह जो सामने आप तीन मंजिला धवल संगमरमरी भवन देख रहे हैं उसे बंसल कुटिया कहते हैं | जनाब, चौंकिए मत, इसके मालिक जगदीशलाल बंसल इसे कुटिया ही मानते हैं | उनका बचपन और भरी जवानी एक झोंपड़ी में गुजरे हैं और वे भगवान के बहुत शुक्रगुजार हैं कि उन्होंने उन्हें यह सब-कुछ दिया है | इसीलिये वे इसे प्रभु की कुटिया मानते हैं | जगदीशलाल ने जीवन भर हड्डे पेले हैं | एक मिल मजदूर से शुरू होकर एक छोटे-से मिल का मालिक बनने की कहानी में जीतोड़ मेहनत है तो प्रभु का प्रसाद भी |  यह सौ प्रतिशत सत्य है कि अब तक का जीवन उन्होंने कोल्हू के बैल की तरह आँखों पर पट्टी बाँधकर अपने परिवार के लिए और अपने परिवार के चारों ओर घूमकर बिताया है | लेकिन अब वह थक चुके हैं या शायद उनके आँखों पर बंधी पट्टी कुछ खिसक गयी है |
     यह कल शाम का किस्सा है | लाला जगदीशलाल बंसल अपनी पत्नी, दोनों बेटों और बहुओं के साथ खाने की मेज पर बैठे थे |
     “आज हम सब एक साथ हैं | मैं आप सभी से पूछना चाहता हूँ कि यह घर-परिवार सब-कुछ कैसा चल रहा है ?”
     उन्होंने कहा तो कोई कुछ न समझ सका | सब प्रश्नभरी निगाहों से उनकी ओर ताकने लगे |
     “मेरे कहने का मतलब यह है कि क्या कुछ ऐसा बाकि रह गया है जिसमें आपको मेरी मदद की आवश्यकता है ?” बात को थोड़ा-सा खोलते हुए उन्होंने आगे कहा |
     “आपकी आवश्यकता तो हमें जीवन भर रहेगी पिताजी !” बड़े बेटे के कहने के साथ ही बाकि सब भी उनकी ओर देखने लगे |
     “नहीं बेटे, अब आप सबको खुदमुख्त्यार बनना होगा | मैंने अपनी और तुम्हारी माँ की आवश्यकता के लिए रखकर सब-कुछ आप दोनों के परिवारों के नाम कर दिया है | वकील आपको सब समझा देगा |” जगदीशलाल ने शान्त चित्त से कहा |
     “आप ऐसा क्यों कह रहे हैं, इन्हें तो पूरे जीवन आपकी जरुरत रहेगी |” पत्नी ने बीच में टोका |
     “नहीं लक्ष्मी, अब इन्हें अपने फैसले स्वयं लेने की आदत डालनी होगी | अब ये उँगली पकड़कर चलने की उम्र बहुत पीछे छोड़ चुके हैं |”
     “लेकिन क्यों, आप अभी मौजूद हैं |” पत्नी हैरान थी और थोड़ी-सी परेशान भी |
     “लक्ष्मी, हम अपनी उम्र का एक पड़ाव पार कर चुके हैं | अब तक की जिन्दगी हमने इनके लिए जी है | अब आगे का जीवन मैं तुम्हारे साथ सिर्फ अपने और तुम्हारे लिए जीना चाहता हूँ | और बेटे, अब मैं आपको छोटे-छोटे राय-मशविरे देने के लिए उपलब्ध नहीं हूँ, हाँ ! जिन्दगी की किसी  विशेष परस्थिति मैं आप मुझे याद कर सकते हो |”
       इसके बाद जगदीशलाल प्रसन्नचित्त हो भोजन करने लगे | पत्नी शायद उनकी बात समझ चुकी थी लेकिन बेटे और बहुओं की निगाहों में हजारों प्रश्न थे जिनका अब कोई उत्तर नहीं मिलना था | 00
     
मधुदीप
138/16, ओंकारनगर-बी, दिल्ली-110 035
मोबाइल : 081300 70928

                  
                                                                             

रविवार, 30 जुलाई 2017

लघुकथा दायित्व

प्रतियोगिता हेतु लघुकथा(दायित्व)

शर्माजी ,वकील साहब के हरे भरे बगीचे में घूम रहे थे।घूमते हुए कई पौधो पर गौर किया,जो जर जर हालत में थे।बगीचे मे अमरूद,अनार,केला,आंवला,सीताफल,कटहलआदि कई फल तथा कई पुष्प पौधे थे।परन्तु न किसी पौधे मे फूल आये और न ही फल।बगीचे की हालत ऐसी मानो हरियाली बढ़ाने हेतु ढेर सारे पौधे ढूंस ढूंस कर भर दिए हो।
"देखो साहब!सादर...कहना ही चाहूँगा कि हमारा दायित्व है कि हम चाहे वर्ष में एक या दो पौधे लगाये,परंतु उनका अपनी संतान की भांति लालन करे।और उन्हें पौधे से वृक्ष के रूप में बढ़ने दे ताकि वह फल-फूल सके।तभी वृक्षारोपण सार्थक माना जायेगा।"
"अरे शर्माजी !जहां देखो वहां प्रदूषण।सांस लेना भी दुश्वार हो रहा है ।तो अच्छा ही है ज्यादा पौधे ज्यादा हरियाली।"
"पहली बात तो इससे मिट्टी की उर्वरक क्षमता में कमी आ जाती है परिणामस्वरूप कोई पौधा फल फूल नही पाता।"
"और ?"
"और ये कि सोचिये यदि एक छोटे से कमरे में ढेर सारी भीड़ को ढूंस ढूंस कर भर दिया जाये तो क्या सांस लेना दुश्वार नही हो जायेगा उनका।"

#स्वरचित
प्रियंका शर्मा

शनिवार, 29 जुलाई 2017

सोपान

पांच अप्रकाशित रचनाएँ

1)पहली रचना-

#विषय-चाँद#

#विधा-हायकू#

चाँद न आया
दूर तलक अब
अँधेरा छाया।

रात घनेरा
घन घन गहरा
तारों का डेरा।

मन बावरा
पिया पर ठहरा
लाज लपेरा।

चाँद चकोर
बिरहन की आली
मैं मतवारी।

तारे बैरन
आज पि मिलन की
लगती काली।

क्यों मनवा
अब झांके उधर
शाख जिधर।

साँझ सकारे
दिल यही पुकारे
बालम आ रे।

हम अरसे
मिलन को तरसे
मन भाग रे।

मनवा छोड़
आज पि की नगरी
छोड़ डगरी।

चाँद निकला
हटा सब पहरा
मुख ठहरा।

आँसू गिरते
पियाजी जो दिखते
प्यार गहरा।

स्वरचित

प्रियंका शर्मा।

2)दूसरी रचना-

विषय-मगरूर
विधा-छंद मुक्त रचना।

होकर मगरूर,नशे में चूर,
मत भूलो तुम मानवता को,
जन्म लिया मनु वंशज हो,
मत धारो तुम दानवता को।

मशहूर से मगरूर का देखो,
नाता बहुत करीब है होता,
मशहूर तो हो,मगरूर न होना,
त्यागो तुम इस जटिलता को।।

हाथों में लेकर हम हाथ चलो,
सहज स्वीकार करो सरलता को,
नित स्नेह सदा निःस्वार्थ बनो,
गढों अहम से परे मिसाल अहो।
#स्वरचित#

प्रियंका शर्मा

3)तीसरी रचना-
विधा-दोहा

विषय-सावन।

1)अद्भूत ठण्डी फुहारे,सावन लेकर आय।

   तीज त्यौहार मनावे,मनवा हिलौरे खाय।।

2)रिमझिम बारिश भये,मनभावन संगीत।

    आतुर मनवा पी मिलन,पीर बड़ी मनमीत।।

3)सावन महिना अति प्रिये,शिवजी पूजन होत।

    झिलमिल निश्छल जले,अनंत भोला जोत।।

4)बगीया सावन झूले,हरनार एक हि आस।

    सावन पी संग फुले,जनम जनम हरि दास।।

5)सावन पूनम मनावे,रक्षाबंधन तिवार।

    भाई बहना जतावे,एकदूजे प्रति हि प्यार।। 

#स्वरचित

प्रियंका शर्मा।

4)चौथी रचना-
विधा-गज़ल

बह् -212  212  212  212

प्यार तूने जताया मजा आ गया।

खण्डहर मे ख्वाब सजाया मज़ा आ गया।

कांटो पे हुआ ना मुमकिन चलना

चुनकर कांटो को जलाया मज़ा आ गया।

आँख मे थी हया हर मुलाकात पर

हाथ तूने बढ़ाया मज़ा आ गया।

तूने शरमा के मेरे  सवालात पे

सर जो अपना झुकाया मज़ा आ गया।

अश्क़ को आँख ही आँख में पी लिया

ग़म जहाँ से छुपाया मज़ा आ गया।

अजनबी होता सजा भी देता 'प्रिया'

तूने जो  यूँ सताया मज़ा आ गया।

#स्वरचित 

प्रियंका शर्मा।

5)पांचवी रचना-

विधा-लघुकथा।

 लघुकथा(प्रकृति)

सुनिधि बड़ी उदास बैठी थी।आज उसकी शादी है और वो रोहित को चाहती है,रह रहकर रोहित की याद सताये जा रही थी।आँसू थे कि रुकने का नाम ही नही ले रहे थे।तभी उसकी सहेली लीला वहां आ गई।

"क्या मुँह बनाये बैठी है भूल जा अब सब कुछ और आगे बढ़।वर्तमान को स्वीकार कर।शादी है आज तेरी।चल उठ!कही घूम आते है।"

लीला,सुनिधि का हाथ पकड़ उसे खींच कर ले जाने लगी।

"काकी हम अभी आ जाएंगे।"

"अच्छा ठीक है बेटा। मन बहल जायेगा इसका वरना कभी से रो रही है।तू  ही समझा इसे।इसके बापू जिंदा होते तो बात कुछ और होती पर मैं अकेली जान समाज को क्या मुँह दिखाउंगी।जात बिरादरी में रहना मुश्किल हो जायेगा वरना मैं कोई इसके प्यार की दुश्मन थोड़े ही हूँ।"

"हां काकी,सब समझती हूँआप चिंता मत करो।हमारी सुनिधि बहुत समझदार है।"

लीना सुनिधि को नदी किनारे ले जाती है।कुछ देर दोनों खामोश बैठे रहते है।सुनिधि को उदास देख लीना उस पर पानी उड़ा देती है।जैसे ही पानी की बौछार सुनिधि के चेहरे को भिगोती है उसका मन थोड़ा ठीक होने लगा।चारों और हरियाली हरे भरे पेड़ पौधे,फूलों की सौंधी सौंधी खुशबू उसके मन को आनंदित करने लगी। रिमझिम सावन की फुहारें मानो उसकी सारी पीड़ा हरने लगी।पास ही स्थित मंदिर के हाल में बैठकर दोनो ने अपनी माँ का भेजा खाना उसे खिलाया।

" सुनिधि याद है पिछली बार जब यहाँ हम आये थे , बाढ़ ने यहाँ की हरियाली को रेगिस्तान मे तब्दील कर दिया था । और आज ये हरियाली मानो कभी कुछ हुआ ही ना हो ।

यही दस्तूर है यार , अतीत को इतना भी वक्त नहीं देना चाहिये कि भविष्य बदरंग हो जाये । आगे बढ़ना ही जीवन है....."

"तू  और माँ ठीक ही कहते हो,उसे भूल जाने में ही भलाई है।

जाने कहाँ चला गया मुझे छोड़कर,अब कब तक माँ इंतजार करे।उसकी भी जिम्मेदारी है पता नही वो आएगा भी या नही।"

" अब ज्यादा सोच मत और इस खुशी को यूँ ही बरकरार रख।चल अब घर चले काकी इंतजार कर रही होगी,दुल्हनियां।"

दोनों बाहों में बाहे डाले जोर जोर से हँसने लगी।

स्वरचित

प्रियंका शर्मा।

जीवन-परिचय प्रारूप:

1 रचनाकार का नाम- प्रियंका शर्मा.   

पिता का नाम-श्री वासुदेव उपाध्याय

माता का नाम-श्रीमती कौशल्या उपाध्याय
2)पति का नाम- ऋषि शर्मा
3)वर्तमान/स्थायी पता-(प्रकाशन सामग्री भेजने का पता)
   प्रियंका शर्मा व/०ऋषि शर्मा
    गवली हॉस्पिटल के पास,
     कुरावर मंडी,जिला-राजगढ़(ब्यावरा)
     तहसील-नरसिंहगढ़(म.प्र.)
4)
    ई मेल-
     Priyankaupadhyay193@gmail.com
5)शिक्षा- बी.एस. सी.(कंप्यूटर साइंस)
              एम. एस. सी.(कंप्यूटर साइंस)
              (पी. जी. कॉलेज,मन्दसौर,
                 विक्रम यूनिवर्सिटी,उज्जैन)
    जन्म-तिथि-
            15/05/1987

जन्म स्थान-गंधवानी,जिला-धार(म.प्र.)
6)व्यवसाय- Nill          

7)प्रकाशन विवरण-
            प्रयास पत्रिका(संपादक-सरन घई) दो कहानी ,हिंदीसागर पत्रिका(जे. एम.डी. पब्लिकेशन,दिल्ली), विश्वगाथा (चार लघुकथाऐ), सत्य की मशाल पत्रिका में प्रकाशित होने वाली एक चित्रआधारीत प्रतियोगिता में विजेता लघुकथा।
8)घोषणा-
            मैं ये घोषणा करती हूँ कि पत्रिका "* हिंदीसागर " द्वारा भेजी गयी समस्त रचनाएं मेरे द्वारा लिखित है तथा जीवन परिचय में दी गयी समस्त जानकारी पूर्णतया सत्य है,असत्य पाये जाने की दशा में हम स्वयं जिम्मेदार होंगे।
      
प्रियंका शर्मा
दिनांक- 02/08/2017



सोपान सांझा संग्रह

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

पांच अप्रकाशित रचनाएँ

1)पहली रचना-

#विषय-चाँद#

#विधा-हायकू#

चाँद न आया
दूर तलक अब
अँधेरा छाया।

रात घनेरा
घन घन गहरा
तारों का डेरा।

मन बावरा
पिया पर ठहरा
लाज लपेरा।

चाँद चकोर
बिरहन की आली
मैं मतवारी।

तारे बैरन
आज पि मिलन की
लगती काली।

क्यों मनवा
अब झांके उधर
शाख जिधर।

साँझ सकारे
दिल यही पुकारे
बालम आ रे।

हम अरसे
मिलन को तरसे
मन भाग रे।

मनवा छोड़
आज पि की नगरी
छोड़ डगरी।

चाँद निकला
हटा सब पहरा
मुख ठहरा।

आँसू गिरते
पियाजी जो दिखते
प्यार गहरा।

स्वरचित

प्रियंका शर्मा।

2)दूसरी रचना-

विषय-मगरूर
विधा-छंद मुक्त रचना।

होकर मगरूर,नशे में चूर,
मत भूलो तुम मानवता को,
जन्म लिया मनु वंशज हो,
मत धारो तुम दानवता को।

मशहूर से मगरूर का देखो,
नाता बहुत करीब है होता,
मशहूर तो हो,मगरूर न होना,
त्यागो तुम इस जटिलता को।।

हाथों में लेकर हम हाथ चलो,
सहज स्वीकार करो सरलता को,
नित स्नेह सदा निःस्वार्थ बनो,
गढों अहम से परे मिसाल अहो।
#स्वरचित#

प्रियंका शर्मा

3)तीसरी रचना-
विधा-दोहा

विषय-सावन।

1)अद्भूत ठण्डी फुहारे,सावन लेकर आय।

   तीज त्यौहार मनावे,मनवा हिलौरे खाय।।

2)रिमझिम बारिश भये,मनभावन संगीत।

    आतुर मनवा पी मिलन,पीर बड़ी मनमीत।।

3)सावन महिना अति प्रिये,शिवजी पूजन होत।

    झिलमिल निश्छल जले,अनंत भोला जोत।।

4)बगीया सावन झूले,हरनार एक हि आस।

    सावन पी संग फुले,जनम जनम हरि दास।।

5)सावन पूनम मनावे,रक्षाबंधन तिवार।

    भाई बहना जतावे,एकदूजे प्रति हि प्यार।। 

#स्वरचित

प्रियंका शर्मा।

4)चौथी रचना-
विधा-अतुकांत

सीप चंद सी परछाई,
देखी मैंने जल नभ में,
नाविक बन हुई सवार ,
नीले अम्बर के जल तल में।

नीला अम्बर अति सुंदर शोभित,
फैल रहा है चंद चंद में,
शशिकला भी सुन्दर सुशोभित,
झलकी मेरे तन मन मे।

मिलन ये कैसा सुन्दर देखो,
जल नभ का क्षितिज में,
और मेरा मन हुआ लालायित,
छूने को इस मधुर भ्रम में।

देखू जैसे चकोर टकटकी,
ओझल न हो घडी सुनहरी,
मन हर्षित हुआ प्रफुल्लित,
बयां न होगी मेरे मन की।

#स्वरचित#
प्रियंका शर्मा।

5)पांचवी रचना-

विधा-छंद मुक्त।

आदमी भूल करता है,
नाकामयाब भी होता है,
और दुःख भी है पाता,
लेकिन कभी बैठा नही रहता।
पुण्य-सलिला धारा नदी की,
बढ़ती हुई ही निर्मल है रहती ,
टूटती कगार मित्रों कभी ,
दे  जाती है नुकसान भी,
इस डर से धारा को जो,
बांध दिया सदा के लिये,
होगा बुलावा सीधा ये तो,
सड़ान्ध और मृत्यु का।
ईश्वर भी सृष्टि को अपनी,
नही बाँधते सांकल से,
नई नई तब्दीलियां कर,
रखते चौकन्ना सृष्टि को,
तू भी उठ!!और लाँघ समाज की सीमा को,
गूंथ साहस के धागों में,
जीवन के हर एक कार्य को।

स्वरचित 

प्रियंका शर्मा

जीवन-परिचय प्रारूप:

1 रचनाकार का नाम- प्रियंका शर्मा.   

पिता का नाम-श्री वासुदेव उपाध्याय

माता का नाम-श्रीमती कौशल्या उपाध्याय
2)पति का नाम- ऋषि शर्मा
3)वर्तमान/स्थायी पता-(प्रकाशन सामग्री भेजने का पता)
   प्रियंका शर्मा व/०ऋषि शर्मा
    गवली हॉस्पिटल के पास,
     कुरावर मंडी,जिला-राजगढ़(ब्यावरा)
     तहसील-नरसिंहगढ़(म.प्र.)
4)
    ई मेल-
     Priyankaupadhyay193@gmail.com
5)शिक्षा- बी.एस. सी.(कंप्यूटर साइंस)
              एम. एस. सी.(कंप्यूटर साइंस)
              (पी. जी. कॉलेज,मन्दसौर,
                 विक्रम यूनिवर्सिटी,उज्जैन)
    जन्म-तिथि-
            15/05/1987

जन्म स्थान-गंधवानी,जिला-धार(म.प्र.)
6)व्यवसाय- Nill          

7)प्रकाशन विवरण-
            प्रयास पत्रिका(संपादक-सरन घई),हिंदीसागर पत्रिका(जे. एम.डी. पब्लिकेशन,दिल्ली)।
8)घोषणा-
            मैं ये घोषणा करती हूँ कि पुस्तक *"सोपान सांझा संग्रह"* भेजी गयी समस्त रचनाएं मेरे द्वारा लिखित है तथा जीवन परिचय में दी गयी समस्त जानकारी पूर्णतया सत्य है,असत्य पाये जाने की दशा में हम स्वयं जिम्मेदार होंगे।
      
प्रियंका शर्मा
दिनांक- 30/07/2017

प्रमाणपत्र-




गुरुवार, 27 जुलाई 2017

बह् 2122    2122
काफ़िया-आ
रदीफ़-रहा।

चाहे सदा खारा रहा
तू ही सदा प्यारा रहा।

वादे सदा तोड़ा किये
सब कुछ यहाँ धोखा रहा।

यादे बसी तेरी सनम
ख्वाबों गमें सजाता रहा।

राहों सजा के फूल वो         
रौशन सदा महका रहा।

उजड़ा हुआ घर-द्वार था,
सामान सब बिखरा रहा।

महँगे टमाटर हो गये
आलू सदा सस्ता रहा।

टेढ़े ज़रा रस्ते रहे
औ मैं सदा सीधा रहा।

अश्कों मिरे जो देख कर
सारा जहां हँसता रहा।

बुधवार, 26 जुलाई 2017

गगरी

कुण्डलियाँ

   गगरी भरी पानी से,सिर पर उसे उठाय
    गौरी सखियों के संग ,पनिया भरने आय
   पनिया भरने आय,और मन मे शरमावै
   लाज शरम की खातिर,घूँघट मुँह में दबावै
   "प्रिया"खड़ी खड़ी देखत,पनघट रमणीय अति
   पर फिसलन भी है बड़ी,छलकत जाय गगरी।

#स्वरचित
प्रियंका शर्मा

   
  

शनिवार, 22 जुलाई 2017

दिनकर

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध

-- रामधारी सिंह दिनकर

मंगलवार, 11 जुलाई 2017

वफ़ा

वफ़ा के बदले जो जफा करे कोई
बख़्श दो गर ख़ता करे कोई।
इश्क़ ने आशिक़ किया इतना
बेसुधी पे मेरी अब हँसा करे कोई।
दुनिया का दस्तूर ही कुछ ऐसा है
भरे कोई और गुनाह करे कोई।
इश्क़ झूठा था ही उसका समझो
इकरार के बाद जो इन्कार करे कोई।
कुछ तो हक़ीकत होगी फ़साने में
यूँ ही तो नही शिकवा करे कोई।
घर तो खाली ही रहा तमाम उम्र
दुआ यही दिल मे रहा करे कोई।
कमियां ही कमियां ढूंढते है मुझमें
कभी तो आईना देखा करे कोई।
#स्वरचित