बुधवार, 9 अगस्त 2017

चाक पे मिट्टी

चाक कुम्हार मिट्टी आकार
देखो जाकर जब तुम साकार
मिट्टी छनी, कंकड़ हुए पार
पानी के संग घुलती हर बार
मारपीट को सहती गई
पैरों तले रौंदी गई

फिर भी
हर बार निखरती गई
हो जाती तैयार
ढलने को
किसी भी
साँचे में
क्या सही क्या गलत
सब भुलाकर
कर दिया समर्पित खुद को
तन मन अपना गलाकर

अब बारी आपकी है
जो चाहे बना ले
चाक को घुमाकर
मिट्टी को सहलाकर
मन चाहे साँचे में ढाल दे
जो करो थोड़ी सख्ती
आकृति बिगड़ जाती
टूट टूट कर फिर जुड़ जाती
मिट्टी सब कुछ सह जाती
मिट्टी सब कुछ सह जाती।
#स्वरचित

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें