रविवार, 20 अगस्त 2017

लघुकथा संस्कृति

संस्कृति
               संस्कृति उदास थी| उसकी कोई पूछ नहीं थी| घर के कोने में पड़ी हुई थी| समय ने हाथ बढाया| आगे बढी, चल दी| सोचा, खुली हवा में घूम आऊँ| समय ने कहा कुछ गाओ, संगीत उसके रग रग में बसा था| बड़े आत्मविश्वास से मीरा का भजन सुनाना शुरू किया| समय ने प्यार से समझाया, संगीत ऐसा हो जो मन बहलाए, बाज़ार में धूम मचा दे, कुछ आर्थिक फायदा भी कराये| संस्कृति समझ गई, अब वह समय के साथ है व समय उसके साथ है |उसने गाने के साथ कमर मटकाई और यू पी, बिहार लूट ले गई| बाज़ार में समय की तूती बोलने लगी| हर तरफ उसकी चर्चा थी पर संस्कृति मन ही मन दुखी थी|
              कविता लिखने बैठी |सूर ,तुलसी प्रसाद उसकी आत्मा में बसे थे |समय ने विद्वत्ता झाड़ते हुए कहा क्या पुरानी सड़ी- गली कविता कर रही हो| बोलचाल की भाषा में सुनाओ| व्यंग्य करो, कटाक्ष करो| संस्कृति समय की बात समझ गई |मोहल्ले के कवि सम्मेलन जैसी द्विअर्थों वाली कविता कहने लगी | दिल ही दिल में रोने लगी| उसे लगा वह समय की गिरफ्त में आ गयी है |
             रंग व तूलिका मन में रचे बसे थे| समय को समझते हुए उसने अल्पना व रंगोली छोड़ , उलझाव वाले डिजाइन बनाए| श्लोक लिखा, बीच में ईश्वर का प्रतीक बनाया| समय ने घुर्राते हुए खारिज कर दिया| समय की आहट सुनाई दे, डिजाइन ऐसा होना चाहिए| संस्कृति ने गुस्से में ट्यूब से रंग बिखरा दिए, टाट के पैबंद लगाए| अव्यवस्था व अराजकता के प्रतीक वाले चित्र को प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ| समय खुशी से नाचने लगा| संस्कृति हैरान, चकित थी| उसे यह समझ में आ गया कि समय उसी के बल पर इठलाता है और उसे ही आंख दिखाता है| विजेता संस्कृति को कुछ बोलने के लिए कहा गया| अपनी मातृभाषा में उसने बोलना चाहा| समय ने फिर उसे घुड़का – अम्मां का पल्लू पकड़ कर कब तक रोती रहोगी, गवांर थी और गंवार ही रहोगी| गर्म हवा का थपेड़ा उसके मुंह पर लगा| अब उससे सहा नहीं गया| बस अब और नहीं |
           समय को पीछे छोड़ संस्कृति आगे निकल आई| उसे समझ में आ गया था अपने को ज़िंदा रखना है तो उसे किसी की दया की ज़रूरत नहीं है, बस अपनी अस्मिता को बनाए रखना है| समय खुद ब खुद उसके पास आयेगा|

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