#चरैवेति_चरैवेति लघुकथा(प्रतीकात्मक शैली)
न जाने कब से लहराती-बलखाती, धारा बहती चली जा रही थी | जीवन के हर रंग उसने देखे थे, उन्हें अच्छी तरह से पहचाना था | अनगिनत उतार-चढाव उसने पार किये थे | हर मौसम के साथ उसे ताल-मेल बिठालना आ गया था | मस्त थी, खुश थी |
मगर अचानक बहते-बहते वह रो पड़ी, और बोली, “आखिर कब तक ऐसे बहती रहूँगी |” मन अवसाद से घिर आया | देखकर उसे, साथ बह रही सभी लहरें दुखी हो उठीं और पूछने लगीं, “तू तो इतनी मस्त-सी बहती है, अचानक तुझे हुआ क्या ?”
गला रुंध गया, काँपती आवाज में वह बोली, “बहुत थक गयी हूँ अब बहते-बहते | सर्र-सर्र बहती तीखी हवाओं के थपेड़े अब बर्दाश्त नहीं होते, तेज धूप की तपन जलाये देती है और चट्टानों से टकराकर नई दिशा की ओर बहना अब मेरे लिए बहुत मुश्किल हो गया है | मेरी ढलती उम्र भी अब मेरा साथ नहीं देती | आखिर कब तक यूँ ही बहती रहूँगी ?”
लहरों की आँखें नम हो आईं, वह उससे लिपट गयीं और प्यार करते हुए बोलीं, “तुझसे प्रेरित होकर तो हम सब तेरी राह पर चल पड़ी हैं | तू ऐसा सोचोगी तो हमारा क्या होगा ? हम हैं न तेरे साथ |”
वह चैतन्य हो उठी और आँसुओं को पोंछते हुए बोली, “न जाने क्यों यह क्षणिक विचार आ गया, पर मुझे तो बहते जाना है, जब तक सागर में जाकर न मिलूँ | कभी वाष्प बनकर, कभी बादलों में पानी की बूँद बन कर बरस जाना है | जीवन के अनन्त काल तक चलते जाना है |”
अब छोटी-बड़ी सभी लहरें उसे अपनी बाँहों में समेटे खिलखिलाती-लहराती-बलखाती गाते हुए बह चलीं, “चरैवेति-चरैवेति ... चरैवेति-चरैवेति |”