बुधवार, 23 अगस्त 2017

डाकिया

रोज देखती आते तुमको
सुबह सुबह निकल जाते
सांझ तले हो घर को जाते
डाकिया बाबू कहलाते तुम।

मैं भी तँकती राह तुम्हारी
कोई संदेश न लाते तुम
कागजी डाक देकर जाते
अरमान सारे तोड़ मेरे
वापिस लौट जाते  हो तुम।

दूर परदेस ब्याह कर आई
कोई अपना न दिखता यहाँ
राह तंकती आये कोई चिठियाँ
चिठियाँ अब न लाते तुम।

इस आधुनिक दुनिया ने
बदल डाले सारे दस्तूर
संदेश नही अब प्रीत भरा
अंखियां अश्रु दे जाते तुम।

स्वरचित प्रियंका शर्मा

मंगलवार, 22 अगस्त 2017

प्रश्न

1)प्रश्न-
निरंतर-अ-प्रिय
हिंदी-111111-11
परन्तु यहाँ-122 12 होगा क्या कृपया समझाए?
2)प्रश्न-
कृतज्ञ-(हिंदी-112)
यहाँ 121 होगा क्या आदरणीय?
3)प्रश्न-
ज्ञानी-(ग्+या+नी//0 22)
सही है क्या?
4)प्रश्न-
कुछ अक्षरों में मात्रा गणना समझाए जैसे-त्र, क्ष,श्र।
5)प्रश्न-
सामान्यतः सामान 221 होता हैपरन्तु गायन मेजैसे

मेरा कुछ सामान (सामान उच्चारण सा आ मान हो रहा है तो क्या गणना 2221 होगी?या 221ही रहेगी?)
22 //2 //221या2221 ?
तुम्हारे पास पड़ा है
122//21//12//2
6)प्रश्न
नियम क्रमांक 7 के संदर्भ में।
सामान्यतः आधा अक्षर उससे ठीक पहले वाले की पीठ पर लद कर उससे जुड़ जाता है और पहले वाले अक्षर का मात्रा भार बदल जाता है परंतु इस नियम में ऐसा नही है  क्या ऐसा  इसलिये है क्योंकि आधा अक्षर के बाद दीर्घ अक्षर आया है या क्या ये नियम सिर्फ इन्ही शब्दों के लिए मान्य हैकृपया उलझन दूर करे।
मार्गदर्शन करें आदरणीय।

मित्रों, चंचल पाहुजा जी ने एक पंक्ति लिखी। उसकी मात्रा-गणना देखें--

बहुत अच्छा मिस्रा है आपका। कई बातें सीखने को मिलेंगी इससे। मिस्रा है--
"तेरे प्यार के गर सहारे न होते"
अगर सिर्फ़ शब्दों के हिसाब से देखें तो--
तेरे=22
प्यार=21
के=2
सहारे=122
न=1
होते=22
   मगर यह ग़ज़ल की एक बह्र यानी छन्द है--
फ़ऊलुन-फ़ऊलुन-फ़ऊलुन-फ़ऊलुन
हरेजै-हरेजै-हरेजै-हरेजै
122-122-122-122
अब आप अपनी पंक्ति पर आने से पूर्व तीन दिन पहले की एक चर्चा में मैंने "कोई" शब्द को लेकर कहा था कि "यह हवा भरा हुआ एक ऐसा गुब्बारा है, जो वैसे तो सामान्य अवस्था में रहता है मगर परिस्थितिवश अपना आकार भी बदल लेता है। ठीक यही बात "तेरे", "मेरे" जैसे शब्दों के साथ भी लागू होती है। आवश्यकतानुसार  "तेरे" के यूँ रूप बदलते हैं--
तेरे 22
तिरे=12
तेर=21
आप सब जानते हैं कि ग़ज़ल में मात्रा-पतन का सिद्धांत चलता है ( जिसका अध्ययन हम आगे चलकर करेंगे) उस नियम से "तेरे" शब्द उक्त तीन अवस्थाओं में समयानुसार खुद को ढाल लेता है। अब देखें आपकी पंक्ति में यह किस रूप में आया है--
तेरे प्यार के गर सहारे न होते
22 21  2  2  1 22 1 22
लेकिन यह चूँकि बह्र या छन्द नहीं है और अगर इस पंक्ति को इसी अवस्था में गाने या गुनगुनाने का प्रयास करेंगे तो शुरू में ही कुछ अटकाव महसूस होगा, क्योंकि इसकी बह्र है--
हरेजै-हरेजै-हरेजै-हरेजै
122-122-122-122
तिरे प्या/र के गर/सहारे/ न होते
तिरे प्यार के गर सहारे न
12   21  2  2  12 2 1
होते
  22

जी बिलकुल ठीक है। दरअस्ल इसमें पहले मुश्त+ए=मुश्ते होता है और फिर "ए" की मात्रा का पतन होता है। तब यह बह्र--
"मुश्त'-ख़ाक स' उठ जाए' मुकद्दर मेरा" र। जाता है। ध्यान दें कि जिस अक्षर पर ' चिह्न लगा है वहाँ मात्रा पतन हुआ है।

रविवार, 20 अगस्त 2017

लघुकथा संस्कृति

संस्कृति
               संस्कृति उदास थी| उसकी कोई पूछ नहीं थी| घर के कोने में पड़ी हुई थी| समय ने हाथ बढाया| आगे बढी, चल दी| सोचा, खुली हवा में घूम आऊँ| समय ने कहा कुछ गाओ, संगीत उसके रग रग में बसा था| बड़े आत्मविश्वास से मीरा का भजन सुनाना शुरू किया| समय ने प्यार से समझाया, संगीत ऐसा हो जो मन बहलाए, बाज़ार में धूम मचा दे, कुछ आर्थिक फायदा भी कराये| संस्कृति समझ गई, अब वह समय के साथ है व समय उसके साथ है |उसने गाने के साथ कमर मटकाई और यू पी, बिहार लूट ले गई| बाज़ार में समय की तूती बोलने लगी| हर तरफ उसकी चर्चा थी पर संस्कृति मन ही मन दुखी थी|
              कविता लिखने बैठी |सूर ,तुलसी प्रसाद उसकी आत्मा में बसे थे |समय ने विद्वत्ता झाड़ते हुए कहा क्या पुरानी सड़ी- गली कविता कर रही हो| बोलचाल की भाषा में सुनाओ| व्यंग्य करो, कटाक्ष करो| संस्कृति समय की बात समझ गई |मोहल्ले के कवि सम्मेलन जैसी द्विअर्थों वाली कविता कहने लगी | दिल ही दिल में रोने लगी| उसे लगा वह समय की गिरफ्त में आ गयी है |
             रंग व तूलिका मन में रचे बसे थे| समय को समझते हुए उसने अल्पना व रंगोली छोड़ , उलझाव वाले डिजाइन बनाए| श्लोक लिखा, बीच में ईश्वर का प्रतीक बनाया| समय ने घुर्राते हुए खारिज कर दिया| समय की आहट सुनाई दे, डिजाइन ऐसा होना चाहिए| संस्कृति ने गुस्से में ट्यूब से रंग बिखरा दिए, टाट के पैबंद लगाए| अव्यवस्था व अराजकता के प्रतीक वाले चित्र को प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ| समय खुशी से नाचने लगा| संस्कृति हैरान, चकित थी| उसे यह समझ में आ गया कि समय उसी के बल पर इठलाता है और उसे ही आंख दिखाता है| विजेता संस्कृति को कुछ बोलने के लिए कहा गया| अपनी मातृभाषा में उसने बोलना चाहा| समय ने फिर उसे घुड़का – अम्मां का पल्लू पकड़ कर कब तक रोती रहोगी, गवांर थी और गंवार ही रहोगी| गर्म हवा का थपेड़ा उसके मुंह पर लगा| अब उससे सहा नहीं गया| बस अब और नहीं |
           समय को पीछे छोड़ संस्कृति आगे निकल आई| उसे समझ में आ गया था अपने को ज़िंदा रखना है तो उसे किसी की दया की ज़रूरत नहीं है, बस अपनी अस्मिता को बनाए रखना है| समय खुद ब खुद उसके पास आयेगा|

बुधवार, 9 अगस्त 2017

#चरैवेति_चरैवेति      लघुकथा(प्रतीकात्मक शैली)   
                                                  
न जाने कब से लहराती-बलखाती, धारा बहती चली जा रही थी | जीवन के हर रंग उसने देखे थे, उन्हें अच्छी तरह से पहचाना था | अनगिनत उतार-चढाव उसने पार किये थे | हर मौसम के साथ उसे ताल-मेल बिठालना आ गया था | मस्त थी, खुश थी |

मगर अचानक बहते-बहते वह रो पड़ी, और बोली, “आखिर कब तक ऐसे बहती रहूँगी |” मन अवसाद से घिर आया | देखकर उसे, साथ बह रही सभी लहरें दुखी हो उठीं और पूछने लगीं, “तू तो इतनी मस्त-सी बहती है, अचानक तुझे हुआ क्या ?”

गला रुंध गया, काँपती आवाज में वह बोली, “बहुत थक गयी हूँ अब बहते-बहते | सर्र-सर्र बहती तीखी हवाओं के थपेड़े अब बर्दाश्त नहीं होते, तेज धूप की तपन जलाये देती है और चट्टानों से टकराकर नई दिशा की ओर बहना अब मेरे लिए बहुत मुश्किल हो गया है | मेरी ढलती उम्र भी अब मेरा साथ नहीं देती | आखिर कब तक यूँ ही बहती रहूँगी ?”

लहरों की आँखें नम हो आईं, वह उससे लिपट गयीं और प्यार करते हुए बोलीं, “तुझसे प्रेरित होकर तो हम सब तेरी राह पर चल पड़ी हैं | तू ऐसा सोचोगी तो हमारा क्या होगा ? हम हैं न तेरे साथ |”

वह चैतन्य हो उठी और आँसुओं को पोंछते हुए बोली, “न जाने क्यों यह क्षणिक विचार आ गया, पर मुझे तो बहते जाना है, जब तक सागर में जाकर न मिलूँ | कभी वाष्प बनकर, कभी बादलों में पानी की बूँद बन कर बरस जाना है | जीवन के अनन्त काल तक चलते जाना है |”

अब छोटी-बड़ी सभी लहरें उसे अपनी बाँहों में समेटे खिलखिलाती-लहराती-बलखाती गाते हुए बह चलीं, “चरैवेति-चरैवेति ... चरैवेति-चरैवेति |”

चाक पे मिट्टी

चाक कुम्हार मिट्टी आकार
देखो जाकर जब तुम साकार
मिट्टी छनी, कंकड़ हुए पार
पानी के संग घुलती हर बार
मारपीट को सहती गई
पैरों तले रौंदी गई

फिर भी
हर बार निखरती गई
हो जाती तैयार
ढलने को
किसी भी
साँचे में
क्या सही क्या गलत
सब भुलाकर
कर दिया समर्पित खुद को
तन मन अपना गलाकर

अब बारी आपकी है
जो चाहे बना ले
चाक को घुमाकर
मिट्टी को सहलाकर
मन चाहे साँचे में ढाल दे
जो करो थोड़ी सख्ती
आकृति बिगड़ जाती
टूट टूट कर फिर जुड़ जाती
मिट्टी सब कुछ सह जाती
मिट्टी सब कुछ सह जाती।
#स्वरचित

मंगलवार, 8 अगस्त 2017


2122     2122    212
दरमियाँ दूरी मिटाकर देखिये।
फूल गुलशन में खिलाकर देखिये।

है 2म1हक2ती 2धू2प 1भी 2तो2सांझ2 त1ले2
हम2स1फर2 मुझ2को2 ब1ना2 कर2 देखिये212

आरजू212 पूरी22 हमारी122 भी2 होगी22(एक मात्रा  अंत में बढ़ाई जा सकती है)
आसमां 212 पैरों22झुका12 कर2 देखिये212

जो 2रूठे12 दिलबर22 मिरे12 है2 सनम12
अब 2जरा 12उनको 22मनाकर 122देखिये212।

दर्द21 दिल2 के2 भूल21सारे22 हम2न1वां2
इश्क़ मेंअब गुनगुनाकर देखिये।
सादर नमन
कमियां सादर आमन्त्रित है(सुधार हेतु)
आज का मिसरा
इश्क़ में अब गुनगुनाकर देखिये
बह्र-2122  2122  212

2122     2122    212
दरमियाँ दूरी मिटाकर देखिये।
फूल गुलशन में खिलाकर देखिये।

है महकती धूप भी तो सांझ तले
हमसफ़र मुझको बनाकर देखिये।

आरजू पूरी तुम्हारी कब हुई
आसमां पैरों झुकाकर देखिये।

जो रहे नाराज़ मेरे है सनम
अब ज़रा उनको मनाकर देखिये।

दर्द दिल के भूल सारे हमनवां
इश्क़ में अब गुनगुनाकर देखिये।

कुछ रिश्ते निभाने पड़ते हैं ताउम्र भावनाओं के बिना भी क्योंकि
मजबूरियों से ज्यादा कमजोरी दूसरे रिश्तों को निभाने की होती है..
निभानी पड़ती हैं कुछ रिवायतें तमाम मुश्किलों के बावजूद क्योंकि
दिलों के इस सौदे में खुशियों के बदले में हसरत दर्द कमाने की होती है...सीमा भाटिया

सोमवार, 7 अगस्त 2017

मुक्तक

122         2122        2122

दिया सा रात भर जलता रहा है
सुनो झूठा भरम पलता रहा है
सितारे राहों में तेरी बिछाकर
सदा काँटो पे वो चलता रहा है।

एकला चलो रे:
***********
रवींद्र नाथ टैगोर की सुप्रसिद्ध रचना का उर्दू अनुवाद किया है Ajmal Siddiqui ने..
देवनागरी लिपि में पढ़ें-

जो कोई न आये बुलाने पे तेरे
जो हर एक डर डर के चेहरे को फेरे
तो तन्हा चला चल, तू तन्हा चला चल

जो तन्हा तुझे कारवाँ छोड़ जाये
वो उम्मीद-ए-मंज़िल तेरी तोड़ जाये
तो काँटों पर ईजाद कर इक नई राह
लहू-रंग नक़्श-ए-क़दम छोड़ता चल
तू तन्हा चला चल तू तन्हा चला चल

जो सब तुझ पे दरवाज़ों को बन्द कर दें
तेरी राह की रौशनी मंद कर दें
तो दुख के शरारों को ख़ुद ही हवा दे
और इक आग सीने में अपने जला चल
तू तन्हा चला चल तू तन्हा चला चल

जो कोई न आये बुलाने पे तेरे
जो हर एक डर डर के चेहरे को फेरे
तो तन्हा चला चल, तू तन्हा चला चल

#RavindranathTagore

#TagoreDeathAnniversary

बुधवार, 2 अगस्त 2017

गीत

चन्दा मेरे चन्दा मेरे,दिल यही पुकारे
छुपे क्यूँ तू बदरी मे,नजर को चुराये।

1)घनी अंधियारी राति,और ये नज़ारे।
   आँखो ही आँखो में,मन भर आये।
   बिन तेरे चन्दा मेरी, रतियां ये सूनी।
    उस पर ये काली काली,बदरी घनेरी।
    चंदा मेरे चंदा मेरे.......।
2)लोग कहे तुझमें ,दाग है गहरे।
   वो न जाने क्यूँ तूने,दाग है लपेटे।
   दाग नही है ये है ,दुनियां की रीतियाँ।
   प्रेम निबाह की है,सारी निशानियाँ।
   चंदा मेरे चंदा मेरे.......।
#स्वरचित
प्रियंका शर्मा