सोमवार, 31 जुलाई 2017

मधुदीपजी की लघुकथाएँ

                              ' हिस्से का दूध ' 
                                             लेखक- मधुदीप 

उनींदी आँखों को मलती हुई वह अपने पति के करीब आ कर बैठ गयी। वह दीवार का सहारा लिए बीड़ी का कश ले रहा था।
" सो गया मुन्ना ... ?"
" जी ! लो दूध पी लो। " सिल्वर का पुराना गिलास उसने बढ़ाया।
" नहीं, मुन्ना के लिए रख दो। उठेगा तो   ... ।" वह गिलास को माप रहा था।
" मैं उसे अपना दूध पिला दूँगी। " वह आश्वस्त थी।
" पगली, बीड़ी के ऊपर चाय दूध नहीं पीते। तू पी ले। " उसने बहाना बना कर दूध को उसके और करीब कर दिया।
तभी ---
बाहर से हवा के साथ एक स्वर उसके कानों से टकराया। उसकी आँखें कुर्ते की खाली जेब में घुस गयीं।
" सुनो, ज़रा चाय रख देना। "
पत्नी से कहते हुए उसका गला बैठ गया। 
                                             ***************

लघुकथा - 'ऐसे'
लेखक - मधुदीप

रात के गहराते अन्धकार में दो मित्र पार्क की सुनसान बैंच पर गुमसुम बैठे थे। इससे पूर्व वे काफी देर तक बहस में उलझे रहे थे। इस बात पर तो दोनों सहमत थे कि इस दुनिया में जिया नहीं जा सकता; इसलिए मरना बेहतर होगा। मगर मरे कैसे ? काफी विचारने के बाद भी दोनों को आत्महत्या का कोई  ढंग उपयुक्त नहीं लगा था।
" सुनो   ... ।" एक ने खामोशी तोड़ी।
" हूँ  ... । "
" मेरी मानोगे ?"
" क्या ? "
" क्यों न हम जिंदगी से लड़ कर मरें।"
कुछ देर बाद दोनों मज़बूती से एक दूसरे का हाथ थामे ; एक ओर  बढे जा रहे थे।           

                                          ***************

तुम इतना चुप क्यों हो दोस्त !
                       (मधुदीप की लघुकथा)

     हिन्दुस्तान की तरह ही एक देश | दिल्ली की तरह ही उसकी एक राजधानी | बाबा खड्गसिंह मार्ग पर स्थित कॉफ़ी-हॉउस की तरह ही बैठकों का एक अड्डा | एक मेज पर छह बुद्धिजीवी सिर-से-सिर मिलाए गर्मागर्म बहस में उलझे हुए हैं | मैं बराबर की मेज पर अपना कॉफ़ी का प्याला लिए बैठा हूँ |
     “देश की अर्थव्यवस्था गर्त्त में जा रही है...”
     “नेताओं ने सारे देश को लूटकर खा लिया है...”
     “दुश्मन हमारे सैनिकों के सिर काट रहा है...”
     “सबसे बड़ा प्रश्न भ्रष्टाचार का है...’’
     ‘’तुम इतना चुप क्यों हो दोस्त...!’’
     “मैं कुछ कहना नहीं, करना चाहता हूँ मेरे दोस्त...!’’
     मेरे प्याले की ठंढी हो रही कॉफ़ी में उबाल आने लगा है |
                                               ०००
                                               ०००

समय का पहिया घूम रहा है
           (मधुदीप की लघुकथा)
     शहर का प्रसिद्ध टैगोर थियेटर खचाखच भरा हुआ है | जिन दर्शकों को सीट नहीं मिली है वे दीवारों से चिपके खड़े हैं | रंगमंच के पितामह कहे जानेवाले नीलाम्बर दत्त आज अपनी अन्तिम  प्रस्तुति देने जा रहे हैं |
     हॉल की रोशनी धीरे-धीरे बुझ रही है, रंगमंच का पर्दा उठ रहा है |
     दृश्य : एक
     तेज रोशनी के बीच मंच पर मुगल दरबार सजा है | शहंशाहे आलम जहाँगीर अपने पूरे रौब से ऊँचे तख्तेशाही पर विराजमान हैं | नीचे दोनों तरफ दरबारी बैठे हैं | एक फिरंगी अपने दोनों हाथ पीछे बाँधे, सिर झुकाये खड़ा है | उसने शहंशाहे हिन्द से ईस्ट इंडिया कम्पनी को सूरत में तिजारत करने और फैक्ट्री लगाने की इजाजत देने की गुजारिश की है | दरबारियों में सलाह-मशविरा चल रहा है |
     “इजाजत है...” बादशाह सलामत की भारी आवाज के साथ दरबार बर्खास्त हो जाता है |
     मंच की रोशनी बुझ रही है...हॉल की रोशनी जल रही है |
     दृश्य : दो 
     मंच पर फैलती रोशनी में जेल की कोठरी का दृश्य उभर रहा है | भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु जमीन पर आलथी-पालथी मारे बैठे गम्भीर चिन्तन में लीन हैं | जेल का अधिकारी अन्दर प्रवेश करता है |
     “भगत सिंह ! तुम जानते हो कि आज तुम तीनों को फाँसी दी जानी है | सरकार तुम्हारी आखिरी इच्छा जानना चाहती है |”
     “हम भारत को आजाद देखना चाहते हैं | इन्कलाब जिन्दाबाद...” तीनों का समवेत स्वर कोठरी की दीवारों से टकराकर गूँज उठा है |
     रोशनी बुझ रही है, पर्दा गिर रहा है |
                                                        पृष्ठ –2 पर जारी

     दृश्य : तीन 
     धीरे-धीरे उभरती रोशनी से मंच का अँधेरा कम होता जा रहा है | दर्शकों के सामने लालकिले की प्राचीर का दृश्य है | यूनियन जैक नीचे उतर रहा है, तिरंगा ऊपर चढ़ रहा है |
     लालकिले की प्राचीर पर पड़ रही रोशनी बुझ रही है | मंच के दूसरे भाग में रोशनी का दायरा फैल रहा है | सुबह का दृश्य है | प्रभात की किरणों के साथ गली-कूँचों में लोग एक-दूसरे से गले मिल रहे हैं...मिठाइयाँ बाँट रहे हैं...आजादी का जश्न मना रहे हैं |
     मंच का पर्दा धीरे-धीरे गिर रहा है |
     दृश्य : चार
     तेज रोशनी के बीच मंच पर देश की संसद का दृश्य उपस्थित है | सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच एक अहम मुद्दे पर तीखी बहस हो रही है |
     “देश की अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिये हमें खुदरा व्यापार में विदेशी पूँजी-निवेश को इजाजत देनी ही होगी...” सत्तापक्ष का तर्क है |
     “यह हमारी स्वदेशी अर्थव्यवस्था को नष्ट करने की साजिश है...” विपक्ष जोरदार खण्डन कर रहा है |
     सभी सदस्य अपनी-अपनी मेज पर लगे बटन को दबाकर अपना मत दे चुके हैं | लोकसभा अध्यक्ष द्वारा परिणाम घोषित किये जाने की प्रतीक्षा है |
     “सरकार का प्रस्ताव बहुमत से स्वीकार हो गया है...” लोकसभा अध्यक्ष की महीन आवाज के साथ ही मंच अँधेरे में डूब जाता है | 
     रोशनी में नहाया हॉल स्तब्ध है | दर्शक ताली बजाना भूल गये हैं |  ०००

मधुदीप की लघुकथा 
                
                         सन्नाटों का प्रकाशपर्व

     दशहरे बाद के बीस दिन जैसे नीले घोड़े पर सवार होकर उड़े जा रहे थे . बंगलों में हो रही साफ-सफाई और रँगाई-पुताई ने सूचित कर दिया था कि प्रकाशपर्व नजदीक आ गया है . जे० के० व्हाइट सीमेंट वाली वाल-पुट्टी तथा एशियन पेंट से दीवारें बोल उठी थीं मगर सम्भ्रान्त कॉलोनी की इन दीवारों के बीच पाँच आशियाने ऐसे भी थे जिनकी दीवारें वर्षों से बोलना भूल गई हैं . इनके वारिश अपने बुजर्गों को देश में अकेला छोड़ विदेशों में जा बसे हैं .
     ये बुजुर्ग सुबह की सैर से लौटकर ऊँचे परकोटों से घिरे अपने-अपने आलीशान बंगलों के लॉन में पड़ी आराम कुर्सियों में पसरे एकटक सामने देखते रहते हैं . माली की खुरपी चलती रहती है और गेट पर दरबान मुस्तैद खड़ा रहता है मगर उनकी तरफ इनका ध्यान नहीं होता . इनका दिन तो तब आगे बढ़ता है जब गेट से कामवालियाँ प्रवेश करती हैं . साफ़-सफाई होती है, चाय-नाश्ता मिलता है और दोपहर का भोजन पेक होता है . कुछ देर को सन्नाटा टूटता है मगर बेताल की तरह आकर फिर पसर जाता है .
     इन बुजर्गों के लिए दीवाली-दशहरे का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है . विदेशों से अपनों की फोन-काल्स, हाय-हैलो, हैप्पी दीवाली, हैप्पी दशहरा... और बस...! ये सभी शरीर से बिल्कुल स्वस्थ लगते हैं मगर एक टूटनभरी थकान इनके पोर-पोर में भरती जा रही है . ये पाँचों प्रतिदिन आपस में मिलते हैं, लम्बी-लम्बी गप्पें मारते हैं, अपनी-अपनी जवानी की यादें दोहरातें हैं मगर इस थकान को अपने से अलग नहीं कर पाते .
     आज दीवाली की प्रभातवेला में जब ये पाँचों सुबह की सैर के बाद एक परकोटे की लॉन में पड़ी कुर्सियों में जाकर धँस गए तो उस परकोटे की ऊँची दीवारें बहुत देर तक फुसफुसाहटें सुनती रहीं . अपने-अपने मालिकों के परकोटों को बन्द पाकर वे पाँचों कामवालियाँ जब इस परकोटे में पहुँचीं तो वहाँ निश्छल खिलखिलाहट फैली हुई थी . वे कुछ न समझ सकीं और हैरान-परेशान सी उनके दिन को आगे बढ़ाने के लिए अन्दर चली गईं .
     सुबह का नाश्ता एकसाथ करते हुए वे सभी अपनी थकान को समेटकर एक निर्णय पर पहुँच चुके थे .
     लक्ष्मी-पूजन के बाद जब सम्भ्रान्त लोग अपने-अपने परिवारों के साथ कॉलोनी में फैले प्रकाशपर्व को देखने छतों पर पहुँचे तो उनकी आँखों के सामने अद्भुत नजारा था...
     साथ लगी कामगारों की कॉलोनी में मोमबत्तियों, दीयों और बिजली की लड़ियों की रोशनी का झलमला फैल रहा था... सम्भ्रान्त कॉलोनी के वे पाँचों बुजुर्ग बच्चों के साथ गोल-गोल घूमते हुए ताली बजा रहे थे, छोटे-छोटे पटाखे छुड़ा रहे थे .  ०००
                                                        --मधुदीप
                                                   138/16 त्रिनगर , दिल्ली-110 035
                                                                                                                  मो० - 09312400709
मधुदीप की लघुकथा 
                
                         सन्नाटों का प्रकाशपर्व

     दशहरे बाद के बीस दिन जैसे नीले घोड़े पर सवार होकर उड़े जा रहे थे . बंगलों में हो रही साफ-सफाई और रँगाई-पुताई ने सूचित कर दिया था कि प्रकाशपर्व नजदीक आ गया है . जे० के० व्हाइट सीमेंट वाली वाल-पुट्टी तथा एशियन पेंट से दीवारें बोल उठी थीं मगर सम्भ्रान्त कॉलोनी की इन दीवारों के बीच पाँच आशियाने ऐसे भी थे जिनकी दीवारें वर्षों से बोलना भूल गई हैं . इनके वारिश अपने बुजर्गों को देश में अकेला छोड़ विदेशों में जा बसे हैं .
     ये बुजुर्ग सुबह की सैर से लौटकर ऊँचे परकोटों से घिरे अपने-अपने आलीशान बंगलों के लॉन में पड़ी आराम कुर्सियों में पसरे एकटक सामने देखते रहते हैं . माली की खुरपी चलती रहती है और गेट पर दरबान मुस्तैद खड़ा रहता है मगर उनकी तरफ इनका ध्यान नहीं होता . इनका दिन तो तब आगे बढ़ता है जब गेट से कामवालियाँ प्रवेश करती हैं . साफ़-सफाई होती है, चाय-नाश्ता मिलता है और दोपहर का भोजन पेक होता है . कुछ देर को सन्नाटा टूटता है मगर बेताल की तरह आकर फिर पसर जाता है .
     इन बुजर्गों के लिए दीवाली-दशहरे का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है . विदेशों से अपनों की फोन-काल्स, हाय-हैलो, हैप्पी दीवाली, हैप्पी दशहरा... और बस...! ये सभी शरीर से बिल्कुल स्वस्थ लगते हैं मगर एक टूटनभरी थकान इनके पोर-पोर में भरती जा रही है . ये पाँचों प्रतिदिन आपस में मिलते हैं, लम्बी-लम्बी गप्पें मारते हैं, अपनी-अपनी जवानी की यादें दोहरातें हैं मगर इस थकान को अपने से अलग नहीं कर पाते .
     आज दीवाली की प्रभातवेला में जब ये पाँचों सुबह की सैर के बाद एक परकोटे की लॉन में पड़ी कुर्सियों में जाकर धँस गए तो उस परकोटे की ऊँची दीवारें बहुत देर तक फुसफुसाहटें सुनती रहीं . अपने-अपने मालिकों के परकोटों को बन्द पाकर वे पाँचों कामवालियाँ जब इस परकोटे में पहुँचीं तो वहाँ निश्छल खिलखिलाहट फैली हुई थी . वे कुछ न समझ सकीं और हैरान-परेशान सी उनके दिन को आगे बढ़ाने के लिए अन्दर चली गईं .
     सुबह का नाश्ता एकसाथ करते हुए वे सभी अपनी थकान को समेटकर एक निर्णय पर पहुँच चुके थे .
     लक्ष्मी-पूजन के बाद जब सम्भ्रान्त लोग अपने-अपने परिवारों के साथ कॉलोनी में फैले प्रकाशपर्व को देखने छतों पर पहुँचे तो उनकी आँखों के सामने अद्भुत नजारा था...
     साथ लगी कामगारों की कॉलोनी में मोमबत्तियों, दीयों और बिजली की लड़ियों की रोशनी का झलमला फैल रहा था... सम्भ्रान्त कॉलोनी के वे पाँचों बुजुर्ग बच्चों के साथ गोल-गोल घूमते हुए ताली बजा रहे थे, छोटे-छोटे पटाखे छुड़ा रहे थे .  ०००
                                                        --मधुदीप

वानप्रस्थ    (मधुदीप की लघुकथा)

यह जो सामने आप तीन मंजिला धवल संगमरमरी भवन देख रहे हैं उसे बंसल कुटिया कहते हैं | जनाब, चौंकिए मत, इसके मालिक जगदीशलाल बंसल इसे कुटिया ही मानते हैं | उनका बचपन और भरी जवानी एक झोंपड़ी में गुजरे हैं और वे भगवान के बहुत शुक्रगुजार हैं कि उन्होंने उन्हें यह सब-कुछ दिया है | इसीलिये वे इसे प्रभु की कुटिया मानते हैं | जगदीशलाल ने जीवन भर हड्डे पेले हैं | एक मिल मजदूर से शुरू होकर एक छोटे-से मिल का मालिक बनने की कहानी में जीतोड़ मेहनत है तो प्रभु का प्रसाद भी |  यह सौ प्रतिशत सत्य है कि अब तक का जीवन उन्होंने कोल्हू के बैल की तरह आँखों पर पट्टी बाँधकर अपने परिवार के लिए और अपने परिवार के चारों ओर घूमकर बिताया है | लेकिन अब वह थक चुके हैं या शायद उनके आँखों पर बंधी पट्टी कुछ खिसक गयी है |
     यह कल शाम का किस्सा है | लाला जगदीशलाल बंसल अपनी पत्नी, दोनों बेटों और बहुओं के साथ खाने की मेज पर बैठे थे |
     “आज हम सब एक साथ हैं | मैं आप सभी से पूछना चाहता हूँ कि यह घर-परिवार सब-कुछ कैसा चल रहा है ?”
     उन्होंने कहा तो कोई कुछ न समझ सका | सब प्रश्नभरी निगाहों से उनकी ओर ताकने लगे |
     “मेरे कहने का मतलब यह है कि क्या कुछ ऐसा बाकि रह गया है जिसमें आपको मेरी मदद की आवश्यकता है ?” बात को थोड़ा-सा खोलते हुए उन्होंने आगे कहा |
     “आपकी आवश्यकता तो हमें जीवन भर रहेगी पिताजी !” बड़े बेटे के कहने के साथ ही बाकि सब भी उनकी ओर देखने लगे |
     “नहीं बेटे, अब आप सबको खुदमुख्त्यार बनना होगा | मैंने अपनी और तुम्हारी माँ की आवश्यकता के लिए रखकर सब-कुछ आप दोनों के परिवारों के नाम कर दिया है | वकील आपको सब समझा देगा |” जगदीशलाल ने शान्त चित्त से कहा |
     “आप ऐसा क्यों कह रहे हैं, इन्हें तो पूरे जीवन आपकी जरुरत रहेगी |” पत्नी ने बीच में टोका |
     “नहीं लक्ष्मी, अब इन्हें अपने फैसले स्वयं लेने की आदत डालनी होगी | अब ये उँगली पकड़कर चलने की उम्र बहुत पीछे छोड़ चुके हैं |”
     “लेकिन क्यों, आप अभी मौजूद हैं |” पत्नी हैरान थी और थोड़ी-सी परेशान भी |
     “लक्ष्मी, हम अपनी उम्र का एक पड़ाव पार कर चुके हैं | अब तक की जिन्दगी हमने इनके लिए जी है | अब आगे का जीवन मैं तुम्हारे साथ सिर्फ अपने और तुम्हारे लिए जीना चाहता हूँ | और बेटे, अब मैं आपको छोटे-छोटे राय-मशविरे देने के लिए उपलब्ध नहीं हूँ, हाँ ! जिन्दगी की किसी  विशेष परस्थिति मैं आप मुझे याद कर सकते हो |”
       इसके बाद जगदीशलाल प्रसन्नचित्त हो भोजन करने लगे | पत्नी शायद उनकी बात समझ चुकी थी लेकिन बेटे और बहुओं की निगाहों में हजारों प्रश्न थे जिनका अब कोई उत्तर नहीं मिलना था | 00
     
मधुदीप
138/16, ओंकारनगर-बी, दिल्ली-110 035
मोबाइल : 081300 70928

                  
                                                                             

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