1) पहली रचना-
अंधियारे जीवन में ज्योति की तरह आई ,
उसके रूप में मैंने एक नन्ही परी पाई ,
खुशियां ही खुशियां इस दिल में समाई ,
महफ़िल बन गई अब वो बीती तन्हाई ,
अंधियारे जीवन में ज्योति की तरह आई।
फूलों -सी नाजुक है उसकी परछाई ,
मैं उस समय फूली न समाई ,
मुझको जब उसने ''माँ '' है बनाई ,
अंधियारे जीवन में ज्योति की तरह आई।
देती है वो कुछ इस तरह दिखाई ,
कभी पापा ,कभी दादी ,तो कभी नानी माँ की परछाई ,
अंधियारे जीवन में ज्योति की तरह आई
एक पल में हंसाए ,दुसरे ही पल वो रुलाए ,
रात रात भर जगाकर ,दिन दिन भर वो सुलाए ,
आँखों में उसकी सीप मोती-सी झलक पाई ,
अंधियारे जीवन में ज्योति की तरह आई।
कभी चन्द्रमा -सी वो बड़ी हो जाए ,
तो कभी चन्द्रमा-सी वो घट जाए ,
क्या है इसमे राज मैं तो समझ न पाई ,
अंधियारे जीवन में ज्योति की तरह आई ,
#स्वरचित#प्रियंका शर्मा#
2)दूसरी रचना(लघुकथा कविता के माध्यम से)-
डरी सहमी लड़की को मैंने,स्कूटी पर बैठे देखा था,
ये सब देख मैंने उसके,पास जाने का सोचा था,
आया इतने में मालिक लड़का,उतरने का उसका कहना था,
रोने लगी,डरने लगी,रंग उडा उसके चेहरे का था,
धीमी सहमी आवाज में मुझे ,शब्द कुछ सुनाया था,
"खून","पीरियड्स","माफ़ कर दीजिए"उसने हाल ये बताया था,
शायद उस दिन लड़की को,पहला पीरियड आया था,
स्तब्ध खड़ी,संकुचाई सी मैं, मन मेरा शरमाया था,
क्या कहूं इस विषय में पुरुष से,कुछ समझ न आया था,
बात समझ सब लड़के ने तब,शांत उसको कराया था,
घबराने की कोई बात नहीँ, ये उसको समझाया था,
आता हूं जल्द कह कर उसने,लड़की को उतारा था,
आवाज दे मुझको लड़की का,ख्याल रखने बुलाया था,
चंद पलों में वो लड़का,वापिस फिर से आया था,
और मेरे हाथों में उसने "सैनेटरी पैड्स" थमाया था,
शांत रखो ,समझाओ सब,मुझको ये फ़रमाया था,
सार्वजानिक शौचालय का,तब रास्ता उसने दिखाया था,
संवेदनशीलता देख लड़के की,मन मेरा भर आया था,
बस समाज ने संस्कारों की ,चादर को इस पर डाला था,
"मासिक-धर्म"कोई पाप नही,उसने मुझे सिखाया था।
#स्वरचित#प्रियंका शर्मा#
3)तीसरी रचना-
अक्सर कहते सुनती-बहू बेटी जैसी होनी चाहिए,
क्या बहू होने में अपनी कोई खासियत नही,
जो प्रमाण चाहिए बेटी जैसी होने का,
क्यों लादे इतने नियम,क्यूँ छीनी आजादी,
घर छूटा, माँ-बाप छूटे,भाई-बहन,सहेलियां छूटी,
आजादी छीनी घूमने की,कही आने-जाने की,
पहनने की,हँसने-बोलने की,
नौकरी करने की,निर्णय लेने की,
बेटी होकर तो नही रखा सबका ध्यान,
बहू होकर ही वो जब है संपूर्ण,
तो ऐसी किसी अपेक्षा पर क्यूँ रहे जवाबदार???
वो कहते है मुझे बेटी जैसा प्यार देंगे,
क्या बहू जैसा प्यार होता ही नही??
या फिर देने लायक नही होता???
देना ही है तो बहू जैसा प्यार दो,बहू का सम्मान दो,
मेरे बुरे वक़्त में मेरे साथ खड़े रहो,
मत हंसो मेरी स्वाभाविक कमजोरियों पर,
मत खड़े करो सवाल मेरे मातृत्व पर,
मैं बहू हूं, बेटी तो जन्मी थी किसी की सालो पहले,
अब मुमकिन नही इस जनम में दुबारा।
#स्वरचित#प्रियंका शर्मा#
4) चौथी रचना-
आदमी भूल करता है,
नाकामयाब भी होता है,
और दुःख भी है पाता,
लेकिन कभी बैठा नही रहता।
पुण्य-सलिला धारा नदी की,
बढ़ती हुई ही निर्मल है रहती ,
टूटती कगार मित्रों कभी ,
दे जाती है नुकसान भी,
इस डर से धारा को जो,
बांध दिया सदा के लिये,
होगा बुलावा सीधा ये तो,
सड़ान्ध और मृत्यु का।
ईश्वर भी सृष्टि को अपनी,
नही बाँधते सांकल से,
नई नई तब्दीलियां कर,
रखते चौकन्ना सृष्टि को,
तू भी उठ!!और लाँघ समाज की सीमा को,
गूंथ साहस के धागों में,
जीवन के हर एक कार्य को।
#स्वरचित#प्रियंका शर्मा#
5)पांचवी रचना-
मैं दहेज नही दूंगी लाड़ो, क्योंकि
मैं इसके खिलाफ हूं ,
मैं विदा नहीँ कर रही तुम्हे,
ये घर तुम्हारा है,
और सदा तुम्हारा ही रहेगा,
जहाँ चाहो वहाँ रहना,
नये घर जाकर सभी को प्यार देना,
घर को कभी टूटने मत देना,
वो भी माँ बाप ही है तुम्हारे,
पर सुन मेरी लाड़ो!!
मन मारकर कभी न जीना ,
घूंट घूंट के कभी न मरना,
मैं सदा तुम्हारे साथ हूँ,
और सदा साथ रहूंगी,
जब भी हो जरूरत मेरी,
बेझिझक मुझे बताना,
संस्कारों की आड़ में ,
नाइंसाफी कभी न सहना।
मैं तुम्हे विदा नही कर रही,
तुम सदा ये याद रखना ।
#स्वरचित#प्रियंका शर्मा#